Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 165
________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १४३ अंगोंको बनाने वाला “अंगोपांग नाम कर्म" कहलाता है । इसके तीन भेद हैं . औदारिक शरीरके अंगों की रचना करने वाला औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीरकी रचना करने वाला वैक्रियिक अंगोपांग और आहारक शरीरकी रचना करने वाला आहारक अंगोपांग कहलाता है । तैजस और कार्मण शरीर सूक्ष्म होने के कारण अंगोपांग रहित होते हैं। शरीरका निर्माण करने वाले पुद्गल स्कन्धोंको परस्पर बाँधने वाला कर्म बन्धन नामकर्म है । बन्धन नामकर्मके अभावमें शरीर लकड़ियोंके ढेर जैसा हो जाता है। उपरिनिर्दिष्ट पाँच शरीरोंके आधारपर बन्धन भी पाँच प्रकारका हो जाता है । विभिन्न शरीरोंके परमाणुओंको परस्पर मिलाकर छिद्र रहित, एक रूप करने वाले कर्मको संघात नाम कर्म कहते हैं। संघात के अभावमें शरीर तिलके मोदकके समान अपुष्ट रहता है, यह भी पाँच शरीरोंके आधारपर पाँच प्रकारका होता है । शरीरको आकार प्रदानकरने वाला कर्म संस्थान नामकर्म कहलाता है। संस्थान नामकर्म विभिन्न प्रकारके आकारके आधार पर छह प्रकारका हो जाता है - सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शरीरकी समुचित आकृति बनाने वाले कर्मको समचतुरस संस्थान कहते हैं। न्यग्रोध अर्थात् वट वृक्षके समान नाभि के ऊपरसे मोटे और नीचेसे पतले शरीरका आकार बनाने वाले कर्मको न्यग्रोध परिमंडल कहते हैं। सर्पकी बांबीके समान ऊपरसे पतले और नीचेसे मोटे शरीर बनाने वाले कर्मको स्वाति संस्थान कहते हैं, कुबड़ा शरीर बनाने वाला कर्म कुब्जक संस्थान, बौना शरीर बनाने वाला कर्म वामन संस्थान और भयानक आकृति बनाने वाले कर्म को हुंडक संस्थान कहते हैं।" अस्थि बन्धनोंमें विशिष्टता उत्पन्न करने वाला कर्म संहनन नामकर्म कहलाता है । वेष्टन अर्थात् त्वचा, अस्थि और कीलीके बन्धनोंके आधारपर इसे छह प्रकारका कहा गया है - १. वज्रऋषभनाराच २. वज्रनाराच ३. नाराच, ४. अर्धनाराच ५. कीलित और ६. असंप्राप्त सृपाटिका | वज्रऋषभनाराच संहनन सबसे उत्तम होता है, आगेके संहनन क्रमश: हीन होते जाते हैं । - १. षट्खण्डागम६/१, सूत्र ३७ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्व प्रदीपिका, गाथा ३३ ३. षट्खण्डागम, धवला ६/१, पृ०५३ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०३९० ५. षदखण्डागम ६/१ सूत्र ३४ ६. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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