Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 190
________________ १६८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २. गुप्ति उमास्वामीने गुप्तिकी परिभाषा देते हुए सूत्र में कहा है- “सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति । अर्थात् योगोंका भली भाँति निग्रह करना गुप्ति है । योगोंसे अभिप्राय है - मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति । मन, वचन और कांयकी प्रवृत्तिको बुद्धि और श्रद्धा पूर्वक सन्मार्गमें गुप्त करना और उन्मार्गसे रोकना ही यहाँ गुप्ति शब्दका भावार्थ है। पूज्यपादजीने इस सूत्रकी टीका करते हुए इसी अभिप्रायको व्यक्त किया है- “यत: संसार कारणादात्मनो गोपनं सागुप्ति:"२ अर्थात जिसके बल से संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा होती है, वह गुप्ति है। यह गुप्ति तीन प्रकार की होती है - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । __ राग-द्वेष आदि विकारोंसे मनका गोपन करना मनोगुप्ति है, असत्य भाषणादिसे निवृत्ति होना अर्थात् मौन होना वचन गुप्ति है, औदारिक शरीरकी क्रियाओंसे और हिंसा चोरी आदि पाप क्रियाओंसे निवृत्ति होना कायगुप्ति है। ३. समिति राजवार्तिककारने समितिका लक्षण करते हुए कहा है - "सम्यगिति: समितिरिति” अर्थात् सम्यग् प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका नामही समिति है। गुप्तिमें असत् क्रियाक निषेधकी और समितिमें सक्रियाके प्रवर्तनकी मुख्यता है, इसीलिए समिति प्रवृत्ति प्रधान होती है। समिति पांच प्रकारकी होती है - ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापण समिति । इन पांचों समितियों को कर्मविनाशका कारण कहा गया है। किसी भी जन्तुको क्लेश अथवा बाधा न हो, इस प्रकार सावधानी पूर्वक चार हाथ आगे पृथ्वीको देख कर चलना ईर्या समिति है। सत्य, हितकारी, परिमित और सन्देह रहित वचन बोलना 'भाषा समिति' है, शुद्ध और निर्दोष आहार करना 'एषणा समिति' है', वस्तु मात्रको भली भाँति देखकर लेना और रखना 'आदान निक्षेपण' समिति है और देखभाल करके जीव रहित स्थान में ही मलमूत्रादिका त्याग करना — उत्सर्ग समिति' है । राजवार्तिककार ने भी इन पाँचों समितियों का इसी प्रकार लक्षण १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ४ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ३. नियमसार, गाथा ६९-७० ४. राजवार्तिक, पृष्ठ ५९३ ५. (क.) चारित्र पाहुड, गाथा ३७, (ख.) ईर्याभाषैणादाननिक्षेपोत्सर्गा: समितयः, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय, ६. मूलाचार, गाथा ११-१५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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