Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 198
________________ १७६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं, उससे जो विशिष्ट विशुद्धि प्राप्त होती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं। परिहा विशुद्धि चारित्रको धारण करने वाला जीव पापसमूहसे वैसे ही लिप्त नहीं होते जिस प्रकार कमलका पत्ता पानीमें रहते हुए भी पानीसे लिप्त नहीं होता।' जिर चारित्रमें समस्त कषाय नष्ट हो चुके हैं, परन्तु लोभका अति सूक्ष्म रूप शेष रहतं है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं और समस्त कषायों अथवा मोहनीय कर्मवे क्षयसे आत्मस्वभावके अनुरूप लक्षण वाला यथाख्यातचारित्र कहलाता है। क. चारित्रका महत्त्व चारित्रके अन्तर्गत पूर्व कथित गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहजय ये पांचों संवरके उपाय गर्भित हो जाते हैं, इसीलिए महापुराणमें चारित्रर्क भावनाओंका निर्देश करते हुए कहा गया है - ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाक्कायगुप्तयः । परीषह सहिष्णुत्वम् इति चारित्र भावना ।' आत्मस्वभावमें प्रवृत्ति करना ही चारित्र कहलाता है। स्वभाव रूप प्रवृत्तिके कारण चारित्रको ही धर्म कहा गया है । कुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमें यही कहा है - "चारित्तं खलु धम्मो" अर्थात् चारित्र ही धर्म है, यह मोक्ष प्राप्तिका साक्षात कारण है । चारित्र रहित ज्ञानको निरर्थक कहा जाता है। चारित्रसे सम्पन्न अल्प ज्ञानी भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु चारित्रसे रहित अधिक शास्त्रोंको जानने वाला भी मुक्ति लाभ नहीं कर सकता। नेत्रके होते हुए भी यदि कोई कुंएमें गिरता है तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं, उसी प्रकार प्रवृत्ति रहित ज्ञान व्यर्थ माना जाता है । भगवती आराधनामें भी कहा गया है – “ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समम्" चारित्रके महत्त्वका प्रतिपादन करते हुए प्रवचनसारमें कहा गया है कि श्रद्धान और ज्ञानसे युक्त जीव यदि चारित्र के बलसे रागादि असंयमसे निवृत नहीं होता तो उसका श्रद्धान और ज्ञान मोक्षके लिए कार्यकारी नहीं हो सकता। इस प्रकार चारित्र का मोक्षमार्गमें अत्यन्त महत्त्व है, श्रद्धा और ज्ञानकी सभी प्रवृत्तियाँ चारित्रके होनेपर ही सार्थक होती हैं। १. गोम्मटसार जीक्काण्ड, गाथा ४७३ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७४,५७५ ३. महापुराण, सर्ग, २१, श्लोक ९८ ४. प्रवचनसार, गाथा ७ ५. णाणं चरित्तहीणं-णिरत्थयं सव्वं, कुन्दकुन्दाचार्य, शीलपाहुड, गाथा ५ ६. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा १२, पृ०५६ ७. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा २३७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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