Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 197
________________ १७५ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा हो जाते हैं। शेष ग्यारह - "ढाधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल" ये वेदनीय कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं।' घ. गुणस्थानों परीषह व्यवस्था- गुणस्थान, मोक्ष मार्गके सोपान हैं जिनका वर्णन अग्रिम अध्यायमें किया जाना है। येसंख्यामें चौदह होते हैं प्रथम नौगुणस्थानोंमें बाईस परीषह संभव होते हैं, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें चौदह परीषह संभव हैं। मोहनीय कर्मजन्य आठपरीषहोंका इनमें अभाव होता है। ज्ञानावरणीय और अन्तराय जन्य प्रज्ञा, अज्ञान और अलाभ इन तीन परीषहोंकाभीतेरहवेंगुणस्थानमें अभावहोजाता है। इस प्रकार कुलग्यारह परीषह तेरहवें गुणस्थानमें संभव माने जाते हैं। चारित्रसारमें अदर्शन और अरति परीषहका नवें गुणस्थानमें अभाव माना है। ७. चारित्र भगवती आराधनामें चारित्रका लक्षण करते हुए कहा गया है “चरति याति येन हितप्राप्ति अहित निवारणं चेति चारित्रम्” “चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं सामायिकादिकम् अर्थात् जिससे हितकोप्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसे चारित्र कहते हैं। पं० सुखलालने चारित्रका लक्षण करते हुए कहा है कि आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना चारित्र है। परिणाम विशुद्धिके तरतमभावकी अपेक्षा चारित्र पांच प्रकारका कहा गया है--सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात। समभाव में स्थित रहनेके लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियोंका त्याग करना सामायिक चारित्र है। यह चारित्रसमस्तपापोंसे निवृत्तिरूप और दुरवगम्यहै। सामायिक चारित्रको ग्रहणकरनेपर जीव उसमें स्थिर नहीं रह पाता और पुन: सावद्य प्रवृत्तियोंमें आ जाता है। इस प्रकारकी अस्थिरता आने पर प्रायश्चित करके पुन: स्थिरताको प्राप्त करना छेदोपस्थापना चारित्र है। प्राणि-हिंसासे निवृत्तिको परिहार कहते १. वेदनीये शेषाः, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय९, सूत्र १६ २. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १०-१२ ३. चारित्र सार, पृ०१३२ ४. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ०४१ ५. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ०२१७ ६. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १८ ७. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७० ८. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244