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कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा ४. पूर्वबद्ध कर्मोकी निवृत्तिका मार्ग निर्जरा(क) निर्जराका लक्षण
निर्जरा जैन दर्शनका एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका प्रयोग कर्मों के जीर्ण होने के अर्थ में किया जाता है। भगवती आराधनामें निर्जराका लक्षण करते हुए कहा गया है- “पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा” अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है। बारस अणुवेक्खामें कहा है – “बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणम्"२ आत्म प्रदेशोंके साथ बँधे हुए कर्म प्रदेशोंका आत्मप्रदेशोंसे गलना अर्थात् पृथक् होना निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र, औषधि आदिसे नि:शक्त किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार तपादिसे नि:शक्त किये गये कर्म संसार चक्रको नहीं चला सकते, इस प्रकार तपोविशेषसे कौकी फलदान शक्तिको जीर्ण कर देना ही निर्जरा है। ख. निर्जरा के भेद
निर्जरा दो प्रकारकी होती है - भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। दास गुप्तके अनुसार भाव निर्जरासे तात्पर्य है, इस प्रकारका वैचारिक परिवर्तन, जिससे कर्म प्रदेशोंका नाश हो सके और द्रव्य निर्जरा से तात्पर्य है, कर्मों की विनाश प्रक्रिया जो फलभोगके द्वारा अथवा समयसे पूर्व तपादिके द्वाराकी जाती है।' - इस प्रकार द्रव्य निर्जरा दो प्रकारकी हो जाती है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा।' क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त होकर और अपना शुभ अथवा अशुभ फल देकर जो कर्मों की निवृत्ति होती है, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। यह निर्जरा केवल फलोन्मुख हुए कर्मों की ही होती है। चतुर्गतिके सभी जीवोंको सविपाक निर्जराही होती है। इसके विपरीत अविपाक निर्जरा, परिपाक कालसे पहले ही, तपादि विशेष साधनों के द्वाराकी जाती है । यह निर्जरा पक्व, अपक्व
१. भगवती आराधना, गाथा १८४७ २. बारस अणुवेक्खा ,गाथा ६६ ३. राजवार्तिक, पृ० २७ ४. (क.) दासगुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०४;
(ख.) पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, गाथा १४४ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९९ ६. वही, पृ० ३९९ ७: भगवती आराधना, गाथा १८४९ ८. बारस अणुवेक्खा , गाथा ६७
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