Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ १७४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन परीषह" जो सहनकी जायें वे परीषह हैं और परीषहको जीतना परीषह जय कहलाता है। ख. भेद यद्यपि परीषहों की संख्या कम और अधिक भी कल्पितकी जा सकती है, तथापि आचार्यों ने बाईस परीषोंकी ही गणना की है। वे ये हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, संत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।३ इन बाईस परीषहोंका अर्थ इनके नामसे ही स्पष्ट है । इनको समभावपूर्वक सहन करते हुए, योगीजन अपने मार्गसे विचलित नहीं होते। इन बाईस परीषहोंमें शीत और उष्ण परीषह परस्पर विरोधी हैं। शीतके होनेपर उष्ण और उष्णके होने पर शीत संभव नहीं है। इसी प्रकार चर्या अर्थात् चलना, शय्या अर्थात् सोना, निषद्या अर्थात् बैठना ये भी परस्पर विरोधी हैं । इन तीनोंमें से एक समयमें एक ही संभव है । इस प्रकार उक्त पांचों परीषहोंमें से एक समय में दो ही संभव हैं । इसी कारण एक जीवके एक साथ अधिक से अधिक उन्नीस परीषह संभव माने गये हैं। ग. परीषहोंके कारण भूतकर्म अष्टविध कर्मों में कुल चार कर्म ही उपरोक्त बाईस परीषहों के कारण माने गये हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषह होते हैं। प्रज्ञा कितनी ही अधिक क्यों न हो परन्तु सर्वज्ञताकी अपेक्षा अल्प ही होती है, यह ज्ञानावरणीय कर्मके कारण होती है। अन्तरायकर्मके फलस्वरूप “अलाभ परीषह" होती है, मोहनीय कर्ममें से दर्शन मोहके कारण “अदर्शन" परीषह होते हैं और चारित्र मोहनीय कर्मके फलस्वरूप नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषधा, आक्रोश, याचना और सत्कार सात परीषह होते हैं । इस प्रकार आठ परीषह मोहनीय जन्य, एक अन्तराय जन्य और दो परीषह ज्ञानावरणीय जन्य, कुल ग्यारह परीषह १. राजवार्तिक, पृ० ५९२ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ३. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ९ ४. एकादयो भाज्यायुगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १७ ५. "ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने" तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र १३ ६. “दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभी” वही, सूत्र १४ ७. “चारित्र मोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारा:" तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र १५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244