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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन फलस्वरूप कर्ममें परिणत पुद्गल स्कन्ध कषायके वशीभूत होकर जितने काल पर्यन्त जीवके साथ बद्धावस्थामें रहते हैं उतने कालको कर्मों का स्थितिबन्ध कहते हैं। कषायकी मन्दता और तीव्रताके अनुसार ही कर्मों की स्थितिमें अन्तर पड़ता
तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायुको छोड़कर सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, उत्कट संक्लेश परिणामसे होता है और जघन्य बन्ध उत्कट विशुद्धपरिणामसे होता है । उक्त तीनों आयुका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध उत्कट विशुद्धपरिणामसे और जघन्य स्थिति बन्ध, उत्कट संक्लेश परिणामोंसे होता
गणित परिचय
जैन दर्शनमें स्थितिबन्धका वर्णन अलौकिक गणितके द्वारा किया गया है इस कारण यहाँ उस गणितका सामान्य प्रमाण जान लेना आवश्यक है ।'
एक करोडको एक करोड़से गुणा करने पर जो लब्ध आवे उसे कोड़ाकोई. कहते हैं । दस कोड़ाकोडी अद्धापल्यों का एक सागर होता है । अद्धापल्यके कालको जानने के लिए एक उपमा दी गई है - दो हजार कोस गहरे, दो हजार कोस चौड़े गोल गढेमें, भेड़के बालों को इतना छोटा करके डालो कि उसका दूसरा भाग न हो सके । प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक-एक बाल निकालने पर जितने वर्षों में वह पूरा भरा हुआ गढा रिक्त हो, उतने वर्षों का एक व्यवहार पल्य है । व्यवहार पल्यसे असंख्यात गुणा उद्धार पल्य होता है और उद्धारपल्यसे असंख्यात गुणा अद्धापल्य होता है । अड़तालीस मिनटका एक मुहूर्त होता है । आवलीसे ऊपर और मुहूर्तसे नीचे के कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । एक श्वासमें संख्यात आवली होती है । नीरोग पुरूषकी नाड़ीके एक बार चलनेको श्वासोच्छवास कहते हैं। एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर श्वासोच्छवास होते हैं।
__ जैनागममें विभिन्न कर्मों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थितिके समयका निर्धारण किया गया है। इस निर्धारणसे तात्पर्य है कि वे कर्म उस निश्चित समयके पश्चात् पके फलकी भाँति जीवसे स्वयं पृथक् हो जाते हैं। कर्मका बन्ध हो जाने के
१.. (क) षट्खण्डागम, धवला, ६/१ पृ० १४६
(ख) के.सी.सोगानी, एथिकल डॉक्टराइन इन जैनिजम १९६७, पृ०५० २. गोम्म्टसार कर्मकाण्ड, गाथा १३४ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २१६
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