________________
१६४
जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन
अनुपधा (हार्दिक पवित्रता) अक्रोध, स्नान, भोजन की पवित्रता, देवोपासना, उपवास और अप्रमाद । ' उपरोक्त नैतिक आदर्शों का बिना फलकी इच्छासे, तत्त्वज्ञानपूर्वक पालन करनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। अत: न्यायवैशेषिक दर्शन ने यद्यपि मोक्षका साक्षात् कारण ज्ञानको माना है, परन्तु परम्परा रूपसे कर्मको भी मोक्षका कारण माना गया है। ड. मीमांसा दर्शनमें मुक्तिका मार्ग
मीमांसा दर्शनमें मोक्षकी द्विविध साधना कही गई है - १. काम्य और प्रतिषिद्ध कर्मों का त्याग २. नित्य कर्मोंका सदैव अनुष्ठान । मीमांसा दर्शनमें कर्मके साथ ही ज्ञानको भी मुक्ति पथका साधन माना है। ज्ञानसे तात्पर्य यह विवेक हो जाना है कि आत्माका संसारसे संबंध वास्तविक होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। मोक्षावस्थामें आत्माका संसारसे संबंध विच्छेद हो जाता है । इस प्रकार मीमांसा दर्शनमें मोक्षके साधनके रूपमें ज्ञानकी आवश्यकता और नित्य कर्मों के अनुष्ठानको स्वीकार कर ज्ञानकर्म समुच्च्यवादको माना गया है।' च. वेदान्त दर्शनमें मुक्तिका मार्ग
वेदान्त दर्शनमें एक मात्र ज्ञानको ही मुक्तिका साधन स्वीकार किया गया है। ज्ञान और कर्मको अन्धकार और प्रकाश तथा उष्णता और शीतलताके समान विपरीत माना गया है । अज्ञान रूपी अन्धकारका निवारण एक मात्र ज्ञान रूपी प्रकाशसे ही होता है, अत: मोक्ष प्राप्ति में कर्मों की आवश्यकता नहीं है, मात्र ज्ञानकी ही आवश्यकता है। सुरेश्वराचार्यने स्पष्ट कहा है कि उत्पाद्य, आप्य, संस्कार्य और विकार्य रूपमें ही क्रियायोंके फल दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु आत्मा इन चारों क्रियाफलोंसे अतीत है, अत: मोक्ष प्राप्ति कर्मों के द्वारा नहीं हो सकती । शंकराचार्यने भी ज्ञानके अतिरिक्त मुक्तिका कोई अन्य साधन नहीं माना। १. प्रशस्तपाद भाष्य, बनारस १९२४, पृ० ६४० २. ........तत्त्वज्ञानान्श्रेियसम्, वैशेषिक सूत्र, १.१.४ ३. तत्त्वज्ञानस्य साक्षाज्जनकता कर्मणस्तु परम्परयेत्याशय:” उदयनाचार्य, किरणाबली भाष्य,
बनारस १९२०, पृ०२१ ४. हिरियन्ना एम, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० ३३३, ३३४ ५. सुरेश्वराचार्य, नैषकर्म्यसिद्धि, अध्याय १, श्लोक २४ ६. उत्पाद्यमाप्यं संस्कार्यम् विकार्यच क्रियाफलम्।
नैवमुक्तिर्यतस्तस्मात् कर्म तस्या न साधनम् । नैष्कर्म्य सिद्धि, १-५३ ७. ब्रह्मैवाहमस्मिइत्यपरोक्ष ज्ञानेन निखिल कर्मबन्धविनिर्मक्त स्यात तत्त्वबोध 99
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org