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कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
१४५ रचना करने वाला निर्माण नाम कर्म है । यह स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माणके भेदसे दो प्रकारका है । समुचित स्थानपर इन्द्रियोंकी रचना करने वाला स्थान निर्माण कहलाता है और समुचित प्रमाणमें इन्द्रियोंकी रचना करने वाला प्रमाण निर्माण कहलाता है। अहंत पदके कारण भूत नामकर्मको तीर्थकर नामकर्म कहते हैं । इस प्रकार ये आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ कही गयी हैं। ३. प्रसदशक
त्रसादि दस प्रकृतियोंको त्रस दशक कहा जाता है। त्रस नामकर्मके उदयसे जीवका द्वीन्द्रियादिकमें जन्म होता है। स्थूल शरीर को प्राप्त कराने वाला कर्म बादर नामकर्म होता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन, इन छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कराने वाला कर्म पर्याप्तिनामकर्म होता है। एक शरीरका एक जीवही स्वामी हो, ऐसा नामकर्म प्रत्येक शरीर नामकर्म कहलाता है। शरीरकी धातुओं तथा उपधातुओंको स्थिर रखने वाले कर्म को स्थिर नामकर्म कहते हैं, इसके द्वारा रोगोंका शमन होता है। शरीरके अवयवोंको सुन्दर बनाने वाला कर्म शुभ नामकर्म है। दूसरोंको सुन्दर प्रतीत होने वाले शरीरकी प्राप्ति “सुभगनामकर्म" से होती है । स्वरकी मधुरता सुस्वर नामकर्मसे होती है, कान्तियुक्त शरीरको प्राप्त कराने वाला आदेय नामकर्म है और संसारमें जीवकी प्रशंसा और कीर्तिका प्रसार करने वाला यश: कीर्ति नामकर्म है । इस प्रकारसे दस त्रसादि प्रकृतियाँ हैं। ४. स्थावर दशक
स्थावरादि दस प्रकृतियोंको स्थावर दशक कहा जाता है । पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने वाला स्थावर नामकर्म है।' परस्परमें प्रतिघात न होने वाले शरीरकी प्राप्ति सूक्ष्म नामकर्म से होती है । आहारादि पर्याप्तियोंकी अपूर्णता अपर्याप्ति नाम कर्म के उदयसे होती है। साधारण नामकर्मके उदयसे एक शरीरमें ही अनेक जीवोंको स्वामित्व प्राप्त होता है। अस्थिर नामकर्म शरीरकी धातुओं और उपधातुओंको स्थिर अवस्थामें नहीं रहने देता और शरीरको रोगी बना देता है। असुन्दर शरीरकी प्राप्ति कराने वाला अशुभ नामकर्म है । कान्ति रहित शरीरकी प्राप्ति कराने वाला अनादेय नामकर्म
१. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८९ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३ ३. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३
(ख) “यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् स नाम" सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९ ४. “यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावर नाम सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९१
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