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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन इसी कारण मोहको " अरि” अर्थात् शत्रु कहा गया है। शेष समस्त कर्म मोहके ही आधी हैं। मोहके बिना शेष कर्म अपना कार्य नहीं कर पाते, इसी कारण मोहनीय कर्मको सब कर्मों में प्रधान कर्म माना गया है। इसके अभावमें शेष कर्मों का सत्त्व, असत्त्व के समान हो जाता है, क्योंकि जन्म मरण की परम्परा रूप संसारोत्पादनकी सामर्थ्य उनमें नहीं रहती ।
मोहनीय कर्मके बन्धके कारण
सत्यमार्ग की अवहेलना करनेसे और असत्यमार्गका पोषण करने से, आचार्य, उपाध्याय, गुरू, साधुसंघ आदि सत्यके पोषक आदर्शों का तिरस्कार करने से दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप जीवके संसारका अन्त नहीं होता ।
स्वयं कषाय करने से अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि प्रवृत्ति करने से, जगदुपकारी तपस्वियोंकी निन्दा करने से, धर्म के कार्यों में अन्तराय करने से मद्य, मांस आदिका सेवन करने तथा कराने से निर्दोष प्राणियों में दूषण लगाने से, अनेक प्रकारके संक्लेशित परिणामोंसे, चारित्र मोहनीय कर्मका बन्ध होता है। '
हास्य, अति प्रलाप, विचित्र क्रीड़ायें, पापशील व्यक्तियों की संगति, परपीड़न, अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए पर को शोकाभितप्त करना, दूसरों को त्रास देना, स्वयं भयभीत रहना, दूसरोंकी बदनामी करना, क्रोध, मान, ईर्ष्या, छल, कपट, तथा स्त्री भावों में रुचि रखना, अनंग क्रीड़ा, अनाचार आदि का सेवन ये परिणाम क्रमश: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरूष, नपुंसक वेद, ये नोकषाय चारित्र मोहनीय कर्मके बन्धका कारण होते हैं । "
मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ
मोहनीय कर्म दो प्रकारका है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीयकी तीन और चारित्र मोहनीयकी पच्चीस इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं।" उन्हें इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है
“जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यास त्त्वसमानत्वात् ” षट्खण्डागम, धवला १ भाग १, पृ० ४३
२. केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १३ ३. राजवार्तिक, पृ० ५२५
१.
४. राजवार्तिक, पृ० ५२५
५. (क.) षटखण्डागम, ६ / १ सूत्र १९-२० (ख.) कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १७
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