Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 162
________________ १४० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन आयु कर्मके भेद और बन्धके कारण आयु कर्मके चार भेद हैं - नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ।' यह प्राणी जैसा चिन्तन करता है वैसा ही उसका परिणाम हो जाता है, और उसी प्रकारके आयु कर्मका बंध हो जाता है। पाषाणकी रेखाके समान क्रोधी. पर्वतके समान मान करने वाला, बाँसकी जड़के समान मायाचारी और कृमिरागके समान लोभ करने वाला जीव नरकायुका बन्ध करता है। आचार्य नेमिचन्द्रने कहा है कि मिथ्यादृष्टि, बहु आरम्भी, तीव्र लोभी, रौद्र परिणामी और शील रहित जीव नरकायुका बन्ध करता है। “माया तैर्यग्योनस्य" अर्थात् जो प्राणी मायाचारी हो, विपरीत मार्गका उपदेशक हो, षड्यन्त्र, छल, प्रपंच और भेद उत्पन्न करने वाला हो, दूसरोंके सद्गुणोंको छिपानेवाला और दोषों को प्रगट करने वाला आर्त-रौद्र परिणामी मायाचारी जीव तिर्यञ्चायुका बन्ध करता है। ___ “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य” “स्वभावमार्दवं च"५ अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह और स्वभावकी मृदुतासे मनुष्य आयुका बन्ध होता है । बालतप, अकाम निर्जरा, मन्द कषाय, दान युक्त प्रवृत्ति और संयमके करनेसे जीव देवायुका वन्ध करता है। जो प्राणी हमेशा दूसरे जीवोंकी रक्षामें तत्पर रहता है, वह दीर्घायु इसके विपरीत परजीवोंका घात करने वाला अल्पायु प्राप्त करता है । ६. नामकर्म नाना मिनोति निर्वर्तयतीतिनाम" नानाप्रकारकी रचनाकरनेवाला "नामकर्म है।" नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम" आत्माको नमानेवाला अथवा जिसके द्वारा आत्मा नमता है, उस कर्मकोभी नामकर्म कहाजाता है। नमन रूप स्वभावके कारणही यह कर्मजीव के शुद्ध स्वभावको आच्छादित करके उसका मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकादि पर्याय भेदको उत्पन्न करता है। मनुष्य, तिथंचादि नामकरण करना ही नामकर्मकी प्रकृति या स्वभाव है। नाम कर्मको चित्रकारसे उपमित किया जा सकता है, क्योंकि यह कर्म १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १० २. तिलोएपण्णति, अधिकार २, गाथा २९३ ३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८०४ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १६ ५. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १७, १८ ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र २०-२१ ७. . भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा ४४६, पृ०६५१ ८. गदियादि जीव भेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च। गदियंतरपरिणमणं करेदि णाम अणेयविहं || गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १२ ९. नाम्नो नरकादि नामकरणम्, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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