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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें
७१ परमाणुओंमें गुणोंक अंश अधिक होते हैं, ऐसे परमाणु कम गुणांश वाले परमाणुओंको अपनेमें परिणत कर लेते हैं। अपने स्निग्धरूक्ष गुणोंके कारणस्कन्ध रूपमें परिणत होकर भी, परमाणु अपने स्वभावको नहीं छोड़ता, सदा एक द्रव्य रूप ही रहता है। १३. पंचविध वर्गणायें___वर्ग" जैन दर्शनका एक पारिभाषिक शब्द है । यह पुद्गल स्कन्धोंकी विभिन्न अवस्थाओंका परिचय कराता है। वर्गका लक्षण करते हुए कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है – “शक्ति समूह लक्षणो वर्ग:"३ शक्तियों के समूहको वर्ग कहा जाता है । षड् द्रव्योंमें स्थित विभिन्न शक्तियोंको अनुभाग कहा जाता है । अनुभागके अविभाज्य, अन्त्यांशको अविभाग प्रतिच्छेद कहा जाता है, जो जड़ और चेतन सभी पदार्थों के गुणों में पाया जाता है। स्निग्धत्व, रूक्षत्व आदि समान गुणोंको धारण करने वाले परमाणु एक ही जातिके होते हैं। एक ही जातिके समान अविभाग प्रतिच्छेदों के समूहसे एक वर्ग बनता है और वर्गों के समूहसे वर्गणा बनती है - “वर्ग समूह लक्षणो वर्गणा"५
संक्षेपमें कहाजा सकता है कि समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणुओंके समूहको वर्ग कहते हैं और वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं। अविभाग प्रतिच्छेदोंकी हीनाधिकताके कारण वर्गणाओंकी अनन्त श्रेणियाँ हो जाती हैं, क्योंकि परमाणुओंकी हानि-वृद्धि हो जाने से वर्गणायें अपनी जाति बदल कर दूसरी जातिकी वर्गणामें परिणत हो सकती हैं। जीव के सर्वप्रकारके शरीरों और सूक्ष्म स्थूल स्कन्धोंकी उपादान कारण रूप प्रधान वर्गणायें पांच ही हैं -
आहारक वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा; ये पांच वर्गणायें ही ग्रहण करने योग्य और व्यवहार्य हैं। ये पांच वर्गणायें ही स्थूल होकर औदारिकादि विभिन्न शरीरोंका निर्माण करती हैं । बाह्याभ्यन्तर जगत्का समस्त विस्तार इन पंचविध वर्गणाओंके कारण ही दृष्टिगोचर होता है। जैन दर्शनकी कर्मसिद्धान्त संबंधी समस्त धारणायें इन वर्गणाओं पर ही अवलम्बित १. बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च, वही, सूत्र ३७ २. स्निग्ध रूक्षत्व प्रत्ययबंधवशादनेक परमाणवेकत्व परिणति रूप स्कन्धांतरितोऽपि
स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेकमेवद्रव्यमिति । पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ८१ - ३. समयसार, आत्मख्याति, गाथा ५२ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० २११
समयसार, आत्मख्याति, गाथा ५२ ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग III, पृ०५२०
तत्थ आहारतेजभाषामणकम्मइयवग्गणाओगहणपाओग्गाओ। षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १४, खण्ड ५, पृ० ५४५
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