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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्यकर्म का अनादि कालीन चक्र चल रहा
उपरोक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन मान्य पुद्गलका कर्म सिद्धान्तके क्षेत्रमें महत्वपूर्ण स्थान है । जीवसे संयुक्त, कर्मफल देने वाली शक्तिको धारण करने वाले, पुद्गलके परमाणु, अत्यन्त सूक्ष्म हैं जो मनुष्यकी मृत्युके समय भौतिक स्थूल शरीरके पृथक होने पर भी, नेत्रोंसे अदृष्ट होकर आत्माके साथसाथ एक गतिसे दूसरी गतिमें चले जाते हैं । ये परमाणु पौद्गलिक होते हुए भी इतने सूक्ष्म हैं कि घरकी दीवार, छत आदिमें भी प्रवेश करके सरलतापूर्वक आत्माके साथही निकल जाते हैं । ये सूक्ष्म परमाणु संसारी आत्माके साथ प्रत्येक अवस्थामें नीर क्षीरके समान एक होकर रहते हैं। कर्मफल देनेकी शक्तिसे युक्त, सूक्ष्म परमाणुओं के समूहको ही सूक्ष्म शरीर या कार्मण शरीर* कहा जाता है ।
मनुष्यको जब उसके पूर्व कर्म का फल मिल जाता है, तो उस कर्म से संबंधित परमाणु कर्मफल देने की शक्तिसे विहीन होकर साधारण परमाणु जैसे हो जाते हैं और इनका संबंध कार्मण शरीरसे छूट जाता है। नवीन कर्म करने से नवीन सूक्ष्म परमाणु पूर्वसे विद्यमान कार्मण शरीरमें प्रवेश करके, कर्म संज्ञाको प्राप्त कर लेते हैं और उनमें कर्मानुसार फल देनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार पूर्वकर्मों के फल भोगसे कर्मपरमाणु कर्मबद्ध आत्मासे छूटते रहते हैं और नवीन कमों के उपार्जनसे सूक्ष्म परमाणु कार्मण शरीर और आत्मासे अथवा कर्मबद्ध आत्मासे एकक्षेत्रावगाह होते रहते हैं । इस प्रकार संसारी जीव सूक्ष्म पुद्गलों के संयोगसे पुन: - पुन: कर्मबन्धके चक्रमें फंसा रहता है। ये पौद्गलिक कर्म जीवके साथ किस कारणसे संयुक्त होते हैं ? किस रूपमें रहते हैं और किस प्रकार घटते बढ़ते रहते हैं इसका स्पष्टीकरण अगिम अध्यायोंमें किया जाना है।
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