________________
जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जीवके साथ ही गमन करता है ।' सांख्यमतानुसार भी स्थूल शरीर छूटता रहता है और नवीन उत्पन्न होता रहता है, परन्तु सूक्ष्म शरीर जीवके साथ एक स्थानसे दूसरे स्थानपर गति करता रहता है ।२ जैन दर्शनानुसार अनादिकालसे संबद्ध कार्मण शरीर मोक्षके समय पृथक हो जाता है, सांख्य मतमें भी मोक्षके समय सूक्ष्म शरीर जीवसे पृथक् हो जाता है। जैन दर्शनमें कार्मण शरीरको उपभोग रहित माना गया है, इसी प्रकार सांख्य दर्शनमें भी सूक्ष्म शरीरको उपभोग रहित कहा गया है ।' अर्थात् औदारिक शरीर इन्द्रियों के द्वारा भोग करता है, परन्तु अन्तका सूक्ष्म या
कार्मण शरीर, इन्द्रियोंके द्वारा भोग करने में समर्थ नहीं होता। ६. सांख्यमें सूक्ष्म शरीरको जैनोंके समान ही अव्याहत गति वाला माना गया
है । सांख्य मान्य प्रकृति, अचेतन होते हुए भी, पुरूष संसर्गके कारण, चेतनके समान व्यवहार करती है, इसी प्रकार जैन मान्य पुद्गल द्रव्य अचेतन होते हुए भी आत्मसंसर्गसे कर्म रूपमें परिणत होकर चेतन सदृश ही प्रतीत होते हैं। जैन दर्शनानुसार मोह, राग, द्वेषादि भावोंका निमित्त पाकर पौद्गलिक द्रव्य कार्मण शरीरके रूपमें आत्माके साथ संबंधित हो जाता है । इस प्रकार भावों व कार्मणशरीरमें यद्यपि सांख्यके समान बीजांकुरवत् कार्य-कारण भाव है, परन्तु सांख्यके समान, जैन दर्शनमें रागादि भावको केवल प्रकृतिका नहीं माना अपितु उनका उपादान कारण जीवको और निमित्त कारण पुद्गलको माना है, क्योंकि जैन दर्शनमें जीवको सांख्य दर्शनके समान कूटस्थ नहीं माना, वह संसार अवस्थामें रागद्वेषादि भावोंके रूपमें परिणमन करता रहता है । कार्मण शरीरका उपादान कारण पुद्गल ही है। जैन मान्य रागद्वेषादि भावोंको सांख्य मान्य प्रत्यय सर्गमें समाविष्ट किया जा सकता है।
अविग्रहगतौ कर्मयोगः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र २५ २. सांख्य कारिका,४० ३. सांख्य कारिका ४४, डॉ० ब्रजमोहन चतुर्वेदी, अनुराधा व्याख्या १९६९ पृ० १५३ ४. निरूपभोगमन्त्यम्, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ४५ . ५. संसरति निरूपभोगम, सांख्यकारिका, ४० ६. आत्ममीमांसा, पृ० १०४
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org