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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
९७ जब यह कहा जाता है कि जीव और कर्मका संबंध अनादि है, तब इसका अभिप्राय यह है कि परम्परासे अनादि है। अनादिकालसे जीव कर्मसे संयुक्त है। जीव पूर्वकर्मों को भोगकर जीर्ण करता रहता है और राग द्वेषके कारण नवीन कोंका उपार्जन करता रहता है। जब तक प्राणीके पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते और नवीन कर्मों का आगमन रुक नहीं जाता तब तक कर्मबन्धकी अनादिकालीन परम्पराका विच्छेद नहीं होता। जिस प्रकार पिता और पुत्रका अनादि संबंध होता है, बीज और वृक्षका अनादि संबंध होता है उसी प्रकार कर्म और आत्माका अनादि संबंध होता है, इसमें पहले पीछे का प्रश्न नहीं है। इसीलिए कर्मसिद्धान्त मर्मज्ञोंने आत्मा एवं कर्मके संबंधको अनादि माना है
यथाऽनादि: स जीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गल: । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादि: स्यात् संबंधो जीव कर्मणोः ।।
जीव अनादिकालसे है, पुद्गल भी अनादिकालसे है और जीव और पुद्गलका बंध भी अनादि कालसे ही है। जीवने कर्म उत्पन्न नहीं किये हैं और कर्मने जीवको उत्पन्न नहीं किया, क्योंकि इन दोनोंका आदि ही नहीं है । यदि दोनोंमें से एक को भी आदि माना जाता तब तो किसी प्रकार से एक से दूसरेकी उत्पत्ति संभव थी, परन्तु दोनोंमें परस्पर जन्य जनक भाव नहीं है अत: दोनों ही अनादि कालसे जीवके साथ बद्ध हैं।२ ग. कर्मबन्ध अनादि होते हुए भी सान्त है -
कर्मों के प्रवाह रूप समष्टिकी दृष्टि से जीवोंको अनादिकालसे ही कर्मबद्धकहा गया है, व्यष्टिगत कर्मों की अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्म पृथक् होते जाते हैं
और अग्रिम कोंका जीवके साथ बन्ध होता जाता है । इस प्रकार अनादिकालसे जीव और कर्मका संबंध चला आ रहा है, परन्तु यह संबंध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है, जीवके अनादिकालीन संबंधका विच्छेद किया जा सकता है, इसलिए यह संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है । सिद्धोंमें इस अनादिकालीन संबंधका विच्छेद आगमप्रमाणसे सिद्ध है । घ. कर्म सिद्धान्तमें द्रव्यबंधकी प्रधावता
यह बन्ध तीन प्रकारका होता है -- जीव बन्ध, अजीव बन्ध और उभय बन्ध । संसार व धन आदि बाह्य भौतिक पदार्थों के साथ जीवको बांध देने के १. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ३५ २ जीवहें कम्म अणाइजिय जणियर कम्मण तेण।
कम्मेजीउ वि जणिउण वि दोहिं वि आइण तेण ॥ परमात्म प्रकाश, अधिकार १, गाथा ५९ ३. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १३, खण्ड ५, पृ० ११ ।
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