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कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
१२३ अव्यक्त ज्ञानसे पहले होनेवाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान 'व्यंजनावग्रह' है। व्यंजनावग्रहमें सत्ताकी प्रतीति मात्र होती है और अर्थावग्रहमें “यह कुछ है" इस प्रकारका ग्रहण होता है । अर्थावग्रहका काल प्रमाण एक समय मात्र होता है।' अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका होता है परन्तु व्यंजन अवग्रह, मन तथा चक्षु इन्द्रियसे नहीं होता इसी कारण यह चार प्रकारका होता है। व्यंजनावग्रह अत्यधिक अव्यक्त होनेके कारण नेत्र और मनका विषय नहीं हो पाता।
२. ईहा मतिज्ञान- अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञानको स्पष्ट करने के प्रति उपयोगकी उन्मुखता विशेषको ईहा कहते हैं । यह भी पाचों इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका है। ईहाका काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ।
३. अवायमतिज्ञान- ईहासे जाने गये पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है, उसे अवाय कहा जाता है। जैसे यह स्थाणु ही है स्तम्भ नहीं, इस प्रकार का निश्चय हो जाना अवाय है । यह भी पांच इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका है। इसका काल प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्त ही है।
४. धारणा मतिज्ञान-अवायसे जाने हुए पदार्थका कालान्तरमें विस्मरण न हो। ऐसे ज्ञानको धारणा कहते हैं | पूज्यपादजी ने कहा है -
“अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा।"
धारणाका काल संख्यात, असंख्यात वर्षोंकामाना गया है। सामान्यरूपसे मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद कहे गये हैं, उन सबको आवरण करने वाले कर्म, मतिज्ञानावरणीयक कहे जाते हैं। आगे तालिका में मतिज्ञानावरणीयके २८ भेदों को निर्दिष्ट किया गया है -
अगले पेज पर दी गई तालिकाको दो दृष्टियोंसे देखा जा सकता है - स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रवण इन चार इन्द्रियों द्वारा होने वाला मति ज्ञान व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे पाँच प्रकारका होता है। (5x4 - 20) चक्षु इन्द्रिय और मनके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता, इसी कारण इनके द्वारा होनेवाला ज्ञान चार प्रकारका ही होता है। (4x2 = 8) दूसरी दृष्टिसे देखने पर व्यंजनावग्रह चार प्रकारका होता है और अर्थावग्रह ,ईहा, १. देवेन्द्रसुरि, कर्मग्रन्य, भाग प्रथम, गाथा ५, अनुवादक सुखलाल, पृ०१४ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३६३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश.भाग १.१०२१० ४. कर्म ग्रन्थ भाग १, गाथा ५, अनुवादक सुखलाल, पृ० १४
सर्वार्थसिद्धि, पृ०१११ ६. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, १० ३०.
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