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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कहलाता है। (४) अपकर्षण करण
"स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणम्” कोंकी स्थिति अर्थात् बंधे रहनेका समय और अनुभाग अर्थात् शक्ति, इन दोनोंमें हानि हो जाना अपकर्षण कहलाता है।
कर्मों की स्थितिका अपकर्षण हो जाने पर कर्म जितने कालके लिए बन्धको प्राप्त हुए थे, उनका वह काल पहले से बहुत कम हो जाता है। जिस प्रकार कर्मों की स्थितिमें कमी हो जाती है, उसी प्रकार अनुभाग अर्थात् फलदान शक्तिमें भी कमी हो जाती है, तीव्रतम शक्ति वाले संस्कार एक क्षणमें मन्दतम हो जाते हैं । । ।
उदाहरणतया किसी जीवने पहले अशुभ कर्मका बंध किया, उसके पश्चात उसकी भावनामें निर्मलता आ जाती है। ऐसी अवस्थामें पहले बन्धे हुए अशुभ कर्मों की स्थिति कम हो जाती है और फल देने की शक्ति भी कम हो जाती है । यही वह रहस्य है, जिससे वर्तमान कर्मों के द्वारा अनागतको सुधारा जा सकता है और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय किया जा सकता है।
अपकर्षण भी दो प्रकार का होता है - व्याघात और अव्याघात । व्याघात अपकर्षणको “काण्डकघात" भी कहते हैं। इससे जीवमें इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह गुणाकार रूपसे कर्मों को क्षय कर देता है । यह मोक्षका साक्षात कारण है और ऐसा अपकर्षण उच्चकोटि के ध्यानियों को ही होता है । इसके विपरीत अव्याघात अपकर्षणमें साधारण रूपसे कर्मों की स्थिति और अनुभागमें हानि होती है।
अपकर्षण तभी संभव है, जब तक कर्म उदयावलीमें नही आते । उदयकी सीमामें प्रवेशकर जाने पर अपकर्षण संभव नहीं होता क्योंकि सत्तागत कर्मों का ही अपकर्षण हो सकता है । (५) उत्कर्षणकरण
"स्थित्युनुभागयोवृद्धिः उत्कर्षणम्” – कर्मों की स्थिति अर्थात् बंधे रहने का समय और अनुभाग अर्थात् शक्तिमें वृद्धिहो जाना उत्कर्षण कहलाता है । १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषा, गाथा ३५१ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४३८ ३. कर्मरहस्य, पृ० १७२-१७३ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ११६ ५. कर्म रहस्य, पृ० १७४ ६. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४३८
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