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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन इसी प्रकार मन, वचन, कायकी क्रियासे कर्म और कर्मसे पुन: मन वचन कायकी क्रियाको बीजांकुरकी तरह अनादि माना है । परन्तु कर्मों के स्वरूपकी दृष्टिसे दोनों मतोंमें भिन्नता है। दलसुखमालवणियाने जैन दर्शनसे योगका अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि योग दर्शनमें क्लेश और कर्मका संबंध आत्मासे नहीं माना गया, इसे अन्त:करण प्रकृतिका परिणाम या विकार कहा गया है, परन्तु जैन मान्यतानुसार संसारी जीवके साथ ही कर्म के संबंधको माना गया है । (घ.) सांख्य दर्शनसे तुलना
सांख्य दर्शनका कर्मसिद्धान्त यद्यपि जैन दर्शनसे समानता रखता है. परन्तु सांख्य दर्शनने पुरूषको कूटस्थ माना है और कर्मको प्रकृतिका विकार माना है । अचेतन प्रकृतिको ही कर्म तथा कर्मफलका कारण माना गया है । प्रपति स्वंय ही कर्मबन्धनमें बंधती है और स्वयं ही कर्मबन्धनसे मुक्त भी हो जाती है ।
डॉ० हिरियण्णाके अनुसार प्रकृति पुरूषको बन्धनमें केवल जकड़ती ही नहीं है अपितु उससे मुक्त भी करती है। परन्तु जैन दर्शनने कर्मको केवल जड़ पुद्गलका नहीं माना अपितु जीव और पुद्गलके संयोगका परिणाम कहा है । जैन दर्शनके अनुसार अनादिकालसे जीव कोसे बंधा हुआ है । यह कर्मबद्ध जीव ही अपने भाव कर्मसे नित्य द्रव्य कर्मों का संचय करता रहता है । रागद्वेष रूप आभ्यन्तर परिणाम भावकर्म हैं और उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुद्गलों का आकर्षण होता है, वही जीवके साथ बद्ध होकर द्रव्यकर्मकी संज्ञाको प्राप्त करते हैं। यह द्रव्यकर्म पुन: भावकर्मका निमित्त कारण हो जाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार संसारकी सत्ताका अर्थ है, जीव और पुद्गल दोनोंका बन्धनको प्राप्त है। जाना और मुक्तिका अर्थ है, दोनोंका बन्धनसे मुक्त हो जाना । कर्म वास्तवर्म आत्मा और पुद्गलके मध्यका संबंध है, जो सांसारिक अवस्थाके अन्त तक बना रहता है। (०) वेदान्त दर्शनसे तुलना
वेदान्तका मायावाद भी जैन मान्य कर्म सिद्धान्तका स्थान नहीं ले सकता यद्यपि वेदान्तने विश्ववैचित्र्यका कारण मायाको ही माना है और जैनोंने भी संसारकी विविधताका कारण कर्मको ही माना है, परन्तु वेदान्तमान्य माया और जैन मान्य कर्मके स्वरूपमें भेद है । माया सत् और असत्से अतीत औ १. आत्म मीमांसा, पृ० १०२ २. सांख्यकारिका, ६२ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० २७० ४. टॉटियानथमल, स्टडीज़ इन जैन फिलासफी, पृ० २२८
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