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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन स्वीकार अवश्य किया है और उसके पुण्य पाप रूप फलको भी माना है परन्तु कर्मके स्वरूपपर विचार करने पर स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें कर्मका जो स्वरूप निर्धारण किया गया है, वैसा स्वरूप अन्य किसी भी दर्शनने नहीं माना है । जैन दर्शनने कर्मफलको देने वाले किसी चेतन व्यक्ति या ईश्वरको भी नहीं माना है। प्राणियोंको कर्मों के अनुसार फल स्वयं मिलता रहता है । यह एक स्वाभाविक व्यवस्था है, इसमें किसी ईश्वरकी आवश्यकताको जैनोंने नहीं माना। - जैन दर्शनमें कर्मके भेद प्रभेदका जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन किया गया है, वैसा विस्तृत तथा सूक्ष्म वर्णन अन्य किसी भी दर्शनमें नहीं किया गया है। जैन दर्शनमें कर्मके द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों पक्षोंको ग्रहण किया गया है । पौद्गलिक संबंध, द्रव्यात्मक पक्षका पोषक है और जीव भावात्मक पक्षका पोषक है। इस विधिसे द्रव्य तथा भाव रूप कर्मका प्रतिपादन अन्य दर्शनोंमें नहीं किया गया है । इस प्रकार विविध दृष्टियोंसे जैन दर्शनके कर्मकी अन्य दर्शनों के कर्मसे विभिन्नता देखी जा सकती है। ३. कर्म, जगत् का सृष्टा है
जैनदर्शन मान्य कर्मके स्वरूपसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरादि भौतिक जगत् और रागद्वेषादि भाव जगत् की सृष्टि करने वाले, जीवके स्वकृत कर्म ही हैं। कर्मका कर्ता स्वयं अपने कर्मों का अनुगमन करता है। इसी कारण जैन दर्शनमें कर्मको जगत् का सृष्टा भी कह दिया गया है, क्योंकि जैनमतमें कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करने में किसी अन्य सत्ता अथवा ईश्वरके हस्तक्षेपका निराकरण किया गया है और गीता द्वारा मान्य अवतारवाद' को भी जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। जगत् में जो विषमता दृष्टिगोचर होती है, यह ईश्वर कृत नहीं है अपितु जीवके अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप ही है। जिस प्रकारका अच्छा या बुरा कर्म होता है उसी प्रकारका फल प्राप्त होता है। कर्मों की विषमताओंके कारण ही प्राणियोंकी देह, बुद्धि आदिकी विषमतायें दृष्टिगोचर होती हैं । जैन दर्शनके इस मतको अरविन्दने भी स्वीकार किया है । अरविन्द आश्रमकी संचालिका माँ ने अपने भक्तोंको उत्तर देते हुए कहा भी है - "भगवान भक्तोंको उस तरह नहीं देख सकते जैसे मनुष्य देखते हैं और न ही उन्हें दण्ड देने या १. कत्तारमेवानुयातिकर्म, उत्तराध्ययनसूत्र, १३, २३ २. भगवद्गीता, ४.८ ३. श्रीमती स्टीवनसन, हर्ट ऑफ जैनिज़म, पृ० १७५ ४. जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा।
काले विजुज्जमाना सुहदुक्खं दिति भुजति ॥ पंचास्तिकाय गाथा ६७
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