________________
८९
कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें अनिवर्चनीय है । परन्तु जैनमान्य कर्म जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों के विशिष्ट संयोगसे उत्पन्न होता है । द्रव्यको जैन दर्शनमें सत्तात्मक माना गया है ।२. (च.) बौद्धदर्शनसे तुलना
__बौद्ध दार्शनिकों का यह मत है कि जो कर्म मनुष्य करता है, उस कर्मके अनुसार ही संस्कार पड़ जाते हैं। मनुष्यको पूर्वकृत कर्मों का फल इन संस्कारों के कारण ही मिलता है । आत्मारामने बौद्धके कर्मसिद्धान्तका, उनके ही क्षणिकवाद द्वारा खण्डन करते हुए कहा है कि क्षणिकवादके कारण आत्मामें कर्मकर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। नथमल टॉटियाने भी बौद्ध मान्य कर्मसे जैन मान्य कर्मकी विभिन्नता दर्शाते हुए कहा है कि बौद्ध दर्शनके अनुसार कर्मका संबंध केवल चेतनासे है, परन्तु जैन दर्शनने कर्मका संबंध जीव और पुद्गल दोनोंसे ही माना है।' बौद्ध कर्मको सूक्ष्म पुद्गलके रूपमें स्वीकार नहीं करते ।' बुद्धने कहा है “चेतना ही कर्म है ऐसा मैं कहता हूं"६ यहाँ चेतना को आरम्भ की दृष्टि से कहा है क्योंकि सभी कर्मों का प्रारम्भ चेतना से ही होता है। (छ.) पाश्चात्य दर्शनोंसे तुलना
. ईसाई और इस्लामी दर्शनोंने भी कर्मको स्वीकार किया है । पुण्य कर्मका फल स्वर्ग प्राप्ति और पाप कर्म का फल नरक प्राप्ति बताया है, परन्तु इन दर्शनोंने कर्मफल देने के लिए एक ईश्वरकी सत्ताको माना है, जो न्यायके दिन आत्माओं को उनके पुण्य अथवा पाप कर्मों के अनुसार सदा के लिए स्वर्ग या नरकमें भेज देता है। जैन दर्शन कर्मफल देने के लिए इस प्रकारकी किसी भी ईश्वरीय सत्ताको नहीं मानता । जैनों ने स्वर्ग और नरकको, पुण्य पापका फल अवश्य माना है, परन्तु फलभोगके पश्चात् जीव स्वयं वहाँसे दूसरी योनिमें चला जाता है।
उपरोक्त तुलनात्मक अध्ययनसे स्पष्ट है कि सांख्य, न्यायवैशेषिक, मीमांसा, बौद्ध, वेदान्त आदि सभी भारतीय दर्शनोंने तथा ईसाई इस्लामी आदि पाश्चात्य दर्शनोंने कर्मकी सत्ताको जैन दर्शनके समान ही किसी न किसी रूपमें १. सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं वेदान्तसार, खण्ड ६ २. तत्वार्थसूत्र, ५.१.२,३ ३. आत्माराम, जैन तत्व कलिका, षष्ठ कलिका, पृ०१४६ ४. टॉटिया नथमल, स्टडीज, इन जैन फिलॉसफी, पृ० २२८ y. Buddhist do not regard the Karma as subtle matter, Encyclopaedia of
religion and ethics, Vol. VII P. 472. ६. अंगुत्तरनिकाय- उद्धृत - बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन - पृ० ४६३ ७. रतनलाल, आत्मरहस्य. १०१०६
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org