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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन वैशेषिक दर्शनमें परमाणुओंके संयोगको गुणाकार रूपमें माना गया है, परन्तु जैन दर्शनमें न्यायवैशेषिककी भाँति गुणाकार संयोगको नहीं माना गया।'
बौद्धों के अनुसार अणुओंमें कोई पारस्परिक संयोग नहीं होता परन्तु जैन दर्शनका पौद्गलिक सिद्धान्त, बौद्ध मान्य इस धारणाका निराकरण करता है, क्योंकि परमाणुओंमें स्निग्ध और रूक्ष गुण पाये जाते हैं, जिसके कारण दो या दो से अधिक अणुओंसे स्कन्धोंका निर्माण होता है । १२. परमाणुसे स्कन्ध कैसे बनते हैं ?
जैनाचार्यों ने परमाणुसे स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका अति सूक्ष्म और वैज्ञानिक ढंगसे प्रतिपादन किया है। इस प्रकारका वर्णन किसी भी अन्य दर्शनमें नहीं पाया जाता, इसी कारण परमाणुसे स्कन्ध निर्माणकी जैन मान्य प्रक्रिया अति विलक्षण कही जा सकती है। जैनदर्शनमें सभी परमाणुओंको चतुर्गुण युक्त और क्रियावान माना गया है। अपनी स्वाभाविक क्रियाके परिणाम स्वरूप परमाणुके स्पर्शादि गुणोंमें हीनाधिकता आती रहती है । ऐसे परमाणु जिनमें स्निग्धता अथवा रूक्षताका जघन्यांश अर्थात् एक ही अंश पाया जाता है, उनका परस्पर बन्ध नहीं होता। जिन परमाणुओंमें स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणोंका समान अंश हो अर्थात् समान गुण वाले दो परमाणुओंका भी परस्पर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि स्निग्ध त्व गुण वाले परमाणु समान जातीय स्निग्धत्व गुण वाले अन्य परमाणुओंको विकर्षित करते हैं और रूक्षत्व गुण वाले विजातीय परमाणुओंको आकर्षित करते हैं। जैन मान्य यह सिद्धान्त विद्युत शक्तिमें भी स्पष्ट रूपसे देखा जा सकता है। और पुरूष तथा स्त्री जातिके असमान शरीरोंमें भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।
दो या दो से अधिक ऐसे परमाणु, जिनके स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणके अंशोंमें भिन्नता पायी जाती है, मिलकर स्कन्धोंका निर्माण करते हैं।' दो अधिक गुणांश वाले परमाणुओंका ही परस्पर बन्ध हो सकता है । जिन १. न्याय सिद्धान्त मुक्तावली, कारिका १० २. नजघन्य गुणानाम्, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३४ ३. गुण साम्ये सदृशानां, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३५ 8. Like charge Repele and unlike attract each other.
जिनेन्द्र वर्णी, कर्म सिद्धान्त, १९८१, पृ०२३ Two or more atoms which differ in their degree of smoothness and roughness May combine to form aggregates. Encyclopaedia of
Religion and Ethics, Vol. II 1959, P. 199. ६. द्वयधिकादिगुणानांतु, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय - ५, सूत्र ३६
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