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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें क्षायोपशमिक भावोंको अर्थात् काषायिक और वैकल्पिक जगत् को कथंचित् पौद्गलिक तथा मूर्तीक स्वीकार किया है, परन्तु यह पौद्गलिकत्व रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले पुद्गल जैसा नहीं है । कार्मण शरीर वाला यह पुद्गल, वह मध्यवर्ती धातु है, जो रूप, रस, गन्ध वाले जड़ पुद्गलको रूप, रस, गन्ध विहीन चिदाभासी पुद्गलके साथ संयुक्त करती है । इस प्रकार जड़ परमाणु और चिदाभासी संस्काराणु दोनों के संश्लेषसे बना कार्मण शरीर विलक्षण है, जिसमें किसी न किसी रूपमें दोनोंके अंशोंका स्पर्श पाया जाता है।
कार्मण वर्गणाओंसे निर्मित कार्मण शरीरकी तुलना सांख्य मान्य सूक्ष्म शरीरसे की जा सकती है। कार्मण शरीरका उपादान कारण पुद्गल और निमित्त कारण आत्माको माना गया है। पुद्गल द्रव्य अचेतन होकर भी कर्मबद्ध संसारी जीवात्माके संसर्गसे, कर्मरूपमें परिणत होकर चेतनके सदृश ही व्यवहार करता है। सांख्यमत में सूक्ष्म शरीर पुरूषाधितिष्ठित होकर मनुष्य, देव, तिथंच रूप भूतसर्गका निर्माण करता है। जैनमतानुसार आत्मा स्वयं मनुष्य, पशु, देव और नारक रूप नहीं है, अपितु आत्माधितिष्ठित कार्मण शरीर भिन्न भिन्न यौनियोंमें जाकर मनुष्य, देव, नारक इत्यादि रूपोंका निर्माण करता है, क्योंकि पुनर्जन्मके चक्रको गतिशील रखने वाले मूलभूत बीज कार्मणशरीरमें ही होते हैं, जो विभिन्न जीवोंमें विभिन्न प्रकारकी क्रियाओंके अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं । इसी विभिन्नताके आधारपर ही कार्मण शरीरसे बने स्थूल शरीरोंमें विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है । कार्मण शरीर समस्त पूर्व कर्मों का फल देने वाले सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओंका पुंज होता है । यह आत्माकी पूर्ण ज्ञान शक्तिको आवृत्त करता है और आनन्द स्वरूपको विकृत कर क्रोधादिमें परिणत करता है। जिनेन्द्र वर्णीने कार्मणवर्गणाओंको टेपसे उपमित किया है, जिस पर वक्ताओंके विविध भाषण, गीत तथा संगीत अंकित हो जाते हैं। टेप को आँखोंसे देखने पर वह एक प्लास्टिककी पट्टी मात्र दिखाई देती है, उसके ऊपर जो विशेषपदार्थ लिप्त होता है, वह हमें दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार औदारिक शरीर तो हमें दिखाई देता है, परन्तु उसमें लिप्त कार्मण वर्गणाओंसे बना शरीर दिखाई नहीं देता।
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ३२७ २. मालवणिया, दलसुख, आत्ममीमांसा, १९५३, पृ० १०५ ३. सांख्यकारिका, कारिका न. ४० ४. जैन खूबचन्द, एपीप इन टु जैनिज़म पृ० १९८ ५. जैन रतनलाल, आत्म रहस्य, १९६१, पृ०९५ ६. कर्म रहस्य, पृ० ११९
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