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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन साधनाके द्वारा कोका विनाश नहीं कर देता । कर्मवर्गणाओंका जीवसे पृथक् हो जाना ही कर्मों का विनाश है । तैजस शरीर भी एक सहायकके रूपमें सदा इसके साथ रहता है। परलोकयात्रामें ये दोनों शरीर ही अनादिकालजीवके साथ रहते आये हैं और सभी संसारी जीवोंके होते हैं ।' कार्मण शरीरका कार्य जीवोंके संस्कारोंको धारण करना है और तैजस शरीरका कार्य औदारिक आदि शरीरोंमें चेष्टा तथा स्फूर्ति उत्पन्न करना है ।
उपरोक्त सर्व लक्षणों के आधारपर यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि कार्मण शरीर तथा इसकी योनिभूता कार्मण वर्गणाका स्वरूप अत्यधिक विलक्षण और सूक्ष्म है । मन-वचन-कायसे मनुष्य जो कुछ भी कार्य करता है, उसके समस्त संस्कार चित्त भूमिपर अंकित होते जाते हैं। इन संस्कारोंके अंतिम अंश "संस्काराणु" कहलाते हैं जिनका आगे विभाग संभव नहीं होता। जिस प्रकार भौतिक परमाणुओंके संश्लेषसे भौतिक स्थूल शरीर बनते हैं, उसी प्रकार संस्काराणुओंके संश्लेषसे सूक्ष्म शरीर बनता है, जिसे यहाँ कार्मण शरीर कहा गया है । यह शरीर ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म स्कन्धोंका समूह है । १४. कार्मण शरीरका शोध
यद्यपि कार्मण शरीरके स्वरूपका शोध कार्य नगण्य तुल्य है, परन्तु फिर भी इस विषयमें जो विचारनायें उपलब्ध हैं, उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता
यद्यपि यह जड़ है, परन्तु सर्वथा जड़न होकर जड़ तथा कर्मचेतनाके मध्यमें स्थित कोई ऐसी वस्तु है, जिसमें दोनोंके अंश विद्यमान हैं। जिस प्रकार दो विभिन्न धातुओंके पदार्थों को परस्पर वैल्ड करने पर उनकी मध्यवर्ती सन्धिमें एक ऐसी धातु बन जाती है, जिसमें दोनों के अंश विद्यमान होते हैं, यदि ऐसा न हो तो दोनों धातुएं परस्परमें बन्धनको प्राप्त नहीं हो सकती, इसी प्रकार स्थूल शरीर और कर्मचेतनाके मध्यमें स्थित कार्मण शरीरमें, भौतिक तथा चिदाभासी दोनोंके तत्त्वांश विद्यमान हैं, यदि ऐसा न होता, तो बाहरका यह पार्थिव शरीर, चिदाभासी चेतना अथवा कर्मचेतनाके साथ बन्धनको प्राप्त नहीं होता।
शरीर तथा जीवके बन्धनमें हेतु देते हुए आचार्योने जीवके समस्त औदयिक तथा
१. अनादि संबंधे च, सर्वस्य, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४१-४२ २. गोम्मटसार जीव काण्ड, गाथा १४१ ३. जैन खूबचन्द, एपीप इन टु जैनिजम, १९७३, पृ० १९९
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