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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन निस्सरणात्मक तैजस शरीर, संयमके निधानभूत किसी मुनिको ही प्राप्त होता है, अस्मद् - युष्मद् शब्दोंसे निर्दिष्ट होने वाले सामान्य जनको नहीं। यह प्रशस्त तथा अप्रशस्तके भेद से दो प्रकारका होता है। प्रशस्त तैजस शरीर को लेकर जो जीव दायें कन्धेसे निकलता है वह दुर्भिक्ष, व्याधि, वेदना, उपसर्ग आदिके प्रशम द्वारा सब प्राणियों को तथा स्वयं अपनेको भी सुख शान्ति प्रदान करता है और अप्रशस्त तैजस शरीर बायें कन्धे से निकलकर स्व तथा परके अनिष्टका कारण होता है।
तैजस शरीरके उपरोक्त लक्षणोंसे चार मुख्य विशिष्टताओंका द्योतन होता है - यह प्रकाशमयी होता है, प्रचण्ड उष्णता को धारण किये होता है, प्रलयकारी शक्ति और अमृतसावी शीतलता, दोनों शक्तियोंको धारण किये होता है। पार्थिव अग्निमें यद्यपि प्रकाश, उष्णता तथा प्रलयकी तीन शक्तियाँ पायी जाती हैं, परन्तु अमृतसावी शीतलता नहीं होती । अग्निकी भाँति सूर्यमें भी ये तीनों शक्तियाँ पायी जाती हैं । अमृतस्रावी शक्ति चन्द्रमामें देखी जा सकती है। जैनों द्वारा मान्य इस तैजस शरीरकी तुलना विद्युत शक्ति से की जा सकती है, क्योंकि विद्युतसे आश्रय लेने पर प्रकाश, फ्रीजका आश्रय लेने पर शीतलता, हीटर आदिका आश्रय लेने पर उष्णता और विस्फोटक पदार्थों का आश्रय लेने पर प्रलयंकारी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ग. भाषावर्गणा
तीसरी वर्गणाका नाम भाषा वर्गणा है । परस्परमें संश्लिष्ट हुए भाषा वर्ग के परमाणु भाषाके निर्माणमें हेतु होते हैं । भाषा दो प्रकारकी होती है -साक्षर और अनक्षर ।' व्यवहार भूमि पर प्रसिद्ध हमारे इस कण्ठ द्वारसे जो ध्वनि निकलती है वह साक्षर होती है और जैन मान्य दिव्य ध्वनि, ढोल, भेरी, नगाड़ा, मेघ गर्जना आदि और द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके मुखसे उत्पन्न हुई भाषा तथा बालक और मूक मनुष्योंकी भाषा अनक्षरात्मक होती है । भाषाके ये विभिन्न रूप भाषा वर्गणा के ही कार्य हैं। सुख लाल संघवीने तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना में कहा है कि जैन मान्य शब्द में वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनों के समान कोई गुण नहीं है, अपितु भाषा वर्गणाके पुद्गलोंका एक विशिष्ट प्रकार का परिणाम
१. तेजा सरीरं दुविहं पसत्थमपसत्थं चेदि, षट्खण्डागम धवला ७, भाग २, पृ० ३०० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ३९४ ३. भाषा लक्षणो द्विविध: साक्षरोऽनक्षरश्चेति, सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९४
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