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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें प्रकार पुद्गल द्रव्य इन्द्रिय ग्राह्य होता है, क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणके विभिन्न पर्याय होते हैं।'
सांख्य दर्शनमें भी पुद्गल स्थानीय प्रकृति तत्त्वमें ज्ञानेन्द्रियोंके रूपमें श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और त्वक् इन पाँच ज्ञानेन्द्रियोंका निर्देश किया गया है
और शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शको इन इन्द्रियों के विषय कहा है। जैन दर्शनमें शब्दको यद्यपि श्रोत्रेन्द्रियके विषयके रूपमें माना गया है, परन्तु पुद्गलके गुणोंमें शब्दकी चर्चा नहीं की गई है, क्योंकि शब्दको पुद्गल द्रव्यका पर्याय कहा गया है और शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ये दस प्रकारके पुद्गल द्रव्यके विशेष पर्याय हैं। आगे पुद्गलके गुणों तथा उसके विभिन्न पर्यायोंका संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, क्योंकि पुद्गलके इस विस्तारमें ही बाह्य जगत् की विचित्रता और कर्मजनित वैषम्य छिपा हुआ है।
पुद्गलके स्पर्श गुणकी आठ पर्याय हैं - कोमल - कठोर, हल्का- भारी, शीत - उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष। ये सभी पर्याय स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य होते हैं, इसी कारण इन्हें स्पर्श कहा जाता है। उक्त आठ पर्यायोंको चार युगलों में निर्दिष्ट किया गया है । एक युगलकी एक ही पर्याय एक समयमें जानी जाती है। इस प्रकार स्पर्श गुणमें एक समयमें चार पर्याय ही उपलब्ध हो सकती हैं, जो पदार्थ कोमल है, वह हल्का, शीत और स्निग्ध भी हो सकता है।'
रसना इन्द्रियके द्वारा अनुभूत विषय रस कहलाता है, वह कटु, तिक्त, कसैला, खट्टा और मधुर पांच प्रकारका होता है।' रसगुणकी एक समयमें एक ही पर्याय उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि जिस समयमें कोई एक रस होगा, उस समयमें अन्य रसोंका होना असम्भव है। पुद्गलका गन्ध गुण घ्राण इन्द्रियका विषय है, जो सूंधा जाता है, वह गन्ध है । यह सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे दो प्रकारका होता है। गन्ध गुणकी दो पर्यायों में से एक समयमें एक ही पर्याय व्यक्त होता है। चक्षु इन्द्रियके विषयको वर्ण कहते हैं अथवा जो देखा जाता है वह वर्ण है । यह काला, नीला, पीला, लाल और सफेदके भेदसे पांच प्रकारका होता है। १. 'जं इंदिएहिं गिन्झं रूवं - रसं - गंध - फास - परिणाम' कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०७ २. सांख्य कारिका, न० २६ ३. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २३ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९३ ५. पदार्थविज्ञान, पृ० १९९ ६. सर्वार्थसिद्धि , पृ० २९३ ७. वही, पृ०२९४ ८. सर्वार्थसिद्धि , पृ०२९४ .
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