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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन सो बंधो सुहुमो थूलो संठाण भेद तमछाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ।'
अर्थात् पुद्गल द्रव्यकी शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप ये दस पर्यायें हैं । पुद्गलके स्पर्शादि गुण तो परमाणुओंमें और स्थूल सूक्ष्म स्कन्धोंमें दोनों में ही रहा करते हैं, परन्तु शब्दादि दस पर्यायें अनन्त परमाणुओंसे युक्त स्कन्धों में ही हुआ करते हैं और अनेक निमित्तों से इनकी निष्पत्ति होती है, इसी कारण उमास्वामीने पुद्गलकी इन पयार्यों के लिए पृथक् सूत्र कहा है -
"शब्द बन्ध सौक्ष्म्यस्थौल्य संस्थानभेद - तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च” २
आगे इनका संक्षिप्त विवरण इष्ट है। जैन दर्शनमें शब्दको पुद्गलकी एक पर्यायके रूपमें माना गया है। न्यायवैशेषिकने शब्दको आकाशका गुण कहा है, परन्तु जैनोंने शब्दको पुद्गलका विकार मानकर न्यायवैशेषिककी इस मान्यताका निराकरण किया है, क्योंकि शब्द मूर्त है, यह बात युक्ति, अनुभव और आगमके द्वारा सिद्धहै । यदि शब्द आकाशका गुण होता तो वह आकाशके समान व्यापक और अमूर्त होता, परन्तु शब्द, मूर्त इन्द्रियों का विषय है, इसी कारण शब्द मूर्तिक और पौद्गलिक है । शब्द ध्वनि रूपमें परिणत होकर अर्थका प्रतिपादन करता है। शब्दके भेद प्रभेदोंको निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
शब्द
-
अभाषात्मक
भाषा
उत्पन्न
भाषात्मक अक्षरात्मक अनक्षरात्मक प्रायोगिक वैससिक संस्कृत आदि दिव्यध्वनि पशुओं की तत वितत घन सुषिर संघर्ष से विभिन्न भाषायें भाषा ।।। उत्पन्न
मृदंग ढोलक धंटा बांसुरी बिजली ध्वनि ध्वनि ध्वनि ध्वनि मेघादि
की ध्वनि इस प्रकार शब्दके सभी भेदप्रभेदोंको पुद्गलका विकार कहा गया है, क्योंकि कण्ठ, तालु, जीभ, दांत, ओष्ठ आदिके विकारसे शब्द उत्पन्न होता है। शब्द श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्य है।
१. वृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ २. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २४ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गाथा २०६
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