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पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें
६७ ३. परमाणु एक प्रदेशी होता है- परमाणु जितने स्थानको घेरता है, क्षेत्रकी उस अल्पतम इकाईको प्रदेश कहा जाता है, स्कन्धोंका निर्माण अनेक परमाणुओंसे होता है, इसी कारण स्कन्ध तो बहुपदेशी होते हैं और दृष्टिपथ में आते हैं परन्तु स्कन्धों की पृष्ठभूमिमें अवस्थित परमाणु एक प्रदेशी होते हैं और दृष्टिपथमें नहीं आते। दृष्टिपथमें न आनेपर भी एक प्रदेशी परमाणु सभी पुद्गल स्कन्धों के कारण हैं, क्योंकि स्कन्धोंको परमाणुका कार्य कहा जाता है और एक प्रदेशी होने के कारण परमाणु शब्द रहित भी कहे गये हैं। ४. परमाणु अविभागी है, क्योंकि इसका कोई दूसरा भाग संभव नहीं है | सुखलाल संघवीके अनुसार परमाणुका कोई विभाग नहीं होता और न ही हो सकना संभव होता है क्योंकि परमाणुका आदि, मध्य और अन्त वह स्वंय होता है । परमाणु असमुदाय रूप होता है ऐसे निरंश या अविभागी परमाणुका ज्ञान, इन्द्रियोंसे नहीं होता, उसका ज्ञान आगम या अनुमानसे ही संभव है। ५. परमाणु मूर्तिक है, क्योंकि इसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं और पृथ्वी, जल अग्नि और वायु इन चार धातुओंका कारण है अर्थात् ये चारों पुद्गल जातियाँ परमाणुओंसे ही उत्पन्न होती है। इन चारों जातियों में स्पर्शादि चारों ही जातियोंके परमाणु पाये जाते हैं । पृथ्वीमें गन्ध गुणकी, जलमें रस गुणकी, अग्निमें वर्ण गुणकी और वायुमें स्पर्श गुणकी मुख्यता अवश्य होती है, परन्तु अन्य गुणों का अभाव नहीं होता | परमाणुके इन गुणों का विवेचन यद्यपि वैशेषिक दर्शनमें भी किया गया है परन्तु वैशेषिक दर्शनमें पृथ्वी आदि चारों भूतोंमें पृथक्-पृथक् गुणके परमाणुओंकी सत्ताको स्वीकार किया गया है। पार्थिव परमाणु में केवल गन्धगुण, जलीय परमाणुमें केवल रस गुण, अग्निके परमाणुमें केवल रूप गुण और वायुके परमाणुमें केवल स्पर्श गुण माना गया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शनमें गुणोंको मौलिक और नित्य माना गया है, परन्तु जैन दर्शन इन गुणोंको व्युत्पन्न और गौण मानता है क्योंकि स्वयं इन गुणोंमें अन्तर नहीं है, अपितु गन्ध रस आदि गुणों का विकास हो जाने पर ही इन गुणोंमें अन्तर आता है। जिस गुणका विकास हो जाता है वह गुण मुख्य हो जाता है और शेष गुण गौण हो जाते हैं । वैशेषिक दर्शनकी तरह जैन दर्शनमें परमाणुमें किसी एक
१. वृहद् नयचक्र, गाथा १० २. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थसूत्र विवेचना, पृ० १३१ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २३८ ४. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६३
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