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वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक ।
हिम,
श्री जिनेन्द्रवर्णी के अनुसार • स्थावर जीवोंका शरीर पाँच जातियोंका होता है प्रथम पार्थिव जाति है, जिसमें मिट्टी, पाषाण, कोयला, धातु आदि सभी खनिज पदार्थ सम्मिलित हैं । द्वितीय जलीय जाति है, जिसमें जल, ओस आदि सम्मिलित हैं। तृतीय तेजो जाति है, जिसमें अग्नि, ज्वाला, अंगार आदि सम्मिलित हैं । चतुर्थ वायु जाति है, जिसमें विभिन्न प्रकारकी वायु सम्मिलित है। पंचम वनस्पति जाति है, जिसमें पेड़-पौधे, घास, फल, फूल आदि सभी वनस्पतियाँ सम्मिलित हैं ।
यद्यपि पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु में इस प्रकार स्पष्ट रूपसे प्राणोंकी सिद्धि नहीं होती, जैसी कि वनस्पतिमें होती है, परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानियोंने प्रत्यक्ष ही उनमें प्राणोंको देखा है। इन जीवोंके बारे में अपना मत प्रस्तुत करते हुए डॉ० हिरियन्ना ने कहा है – “जैनोंका एक विशिष्ट सिद्धान्त उनके सम्पूर्ण दर्शन और नीति संहिताओं में व्याप्त है, वह पुद्गल जीववाद है, इसके अनुसार न केवल प्राणी और पेड़- पौधे अपितु पृथ्वी, अग्नि, जल और वायुके छोटेसे छोटे कण भी जीवोंसे युक्त हैं " । "
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
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दास गुप्तके अनुसार जैन निम्नतर जीवोंका विभाजन करते हुए, एकेन्द्रिय जीवोंके वर्ग में, वर्तमान वनस्पति शास्त्रियोंकी भाँति, पौधोंमें जीवोंकी सत्ता तो मानते ही हैं, परन्तु अन्य चार भूत- पृथ्वी, जल, वायु और अग्निमें भी जीवों की सत्ता मानते हैं । "
कायकी अपेक्षा षष्ठ प्रकारके जीव वसकायिक" कहलाते हैं । त्रसकायिक जीव द्वीन्द्रियसे लेकर समनस्क पंचेन्द्रिय तक होते हैं।" भयका कारण उपस्थित हो जानेपर जो जीव स्वयं अपनी रक्षार्थ भागने दौड़ने में समर्थ होते हैं, ऐसे जीव को बस कहा जाता है ।"
१. राजवार्तिक, पृ० ६०३ २. शान्ति पथ प्रदर्शन, पृ० ४४
३. शान्ति पथ प्रदर्शन, पृ० ४५
इस प्रकार जैनोंने चार दृष्टियोंसे जीवोंका वर्गीकरण किया है। इन चारों प्रकारके जीवोंमें चेतनत्व गुण पाया जाता है, परन्तु जहाँ तक चैतन्यकी मात्राका
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४. हिरियण्णा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६१
५. दास गुप्त, भारतीय दर्शन का इतिहास, पृ० १९९ ६. द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः “तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र १४ ७. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ३९७
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