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शीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें आद्य स्पन्दन ही मन • वचन - काय रूपसे प्रगट हुआ करता है, जैसे तुष्णीक अवस्था में बैठे हुए किसी व्यक्तिको सहसा घूमने का विकल्प उत्पन्न हुआ, इस मने के विकल्प रूप आद्य परिस्पन्दनके फल स्वरूप मनके द्वारा चिन्तन, वचनके गरा वार्तालाप और काय के द्वारा अनेकविध चेष्टायें प्रारम्भ हो जाती हैं, इसी कार परिस्पन्दन रूप आद्य शक्तिके द्वारा ही जीव बाह्य पौद्गलिक जगत् से संयुक्त होकर, कर्म संचय करता रहता है । कुन्दकुन्दाचार्यने इसे ही चेतनाका जीभ कहा है, जब यह क्षोभ शान्त हो जाता है तब चेतना अपने स्वभाव में आ जाती है। । योग शब्द द्वारा अभिहित आत्म प्रदेशोंका यह परिस्पन्दन सिद्धावस्थासे हले तक बना रहता है। विकासक्रमके अन्तिम सोपानको इसीलिये अयोग वली कहा जाता है, क्योंकि वहाँ योगोंका अभाव हो जाता है। १. जीवोंकी संख्या
जैन दर्शनमें जीवको वेदान्त दर्शनकी भाँति एक इकाई रूप नहीं माना गया , अपितु जैनोंके अनुसार जीवोंकी संख्या अनन्त है । इस संख्याका कभी भी अन्त नहीं होता । गोम्मटसारमें कहा गया है
“सर्वो भव्यसंसारिराशिरनन्तेनापि कालेन नक्षीयते - अक्षयानन्तत्वात्"३
संसारी जीवोंकी राशि अनन्तकालमें भी क्षयको प्राप्त नहीं होती है, स्योंकि यह राशि अक्षयानन्त होती है, जो जो अक्षयानन्त होता है वह-वह अनन्त कालके द्वारा भी क्षयको प्राप्त नहीं होता । वार्तिककारने भी कहा है – “इस हिमाण्डमें अनन्त संसारी जीव हैं, इस संसार से ज्ञानी जीवोंकी मुक्ति होते हुए ही यह संसार जीवोंसे रिक्त नहीं होता क्योंकि जिस वस्तुका परिमाण होता है, उसीका जन्म होता है, वही न्यूनता को प्राप्त होती है अथवा समाप्त होती है। अपरिमित वस्तु न कभी न्यून होती है और न ही समाप्त होती है । इसी प्रकार जीवोंकी संख्या भी कभी न्यून नहीं होती, क्योंकि यह राशि अक्षय अनन्त है। । जैन गणित के अनुसार अनन्तका लक्षण भी यही है “एक एक संख्याके मटानेपर भी जो राशि समाप्त नहीं होती, वह राशि “अनन्त” होती है। अनन्त
1. "मोहक्रवोह विहीणो परिणामो अप्पणो हुसमो” प्रवचनसार, गाथा ७ २. न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग: षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, पृ० १९२ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा १९६, पृ०४३७ १. स्याद्वाद् मंजरी, श्लोक २९, पृ० ३३१ . “जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे...ण समप्पई सो रासी अणंतो, धवला, पुस्तक ३, खण्ड १, पृ०२६७
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