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वस्तु स्वभाव
२१ चार्य कहते हैं- “प्रदेशस्य भाव: प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुनावष्टब्धम् प्रदेशके भावको प्रदेशत्व अर्थात् क्षेत्रत्व कहते हैं । वह अविभागी पुद्गल परमाणु के द्वारा घेरा हुआ स्थान मात्र होता है । वस्तु अपने उपरोक्त गुणों के साथ ही किसी न किसी आकृतिको भी अवश्य धारण करती है । वस्तु मात्रको आकृति प्रदान करने वाला गुण प्रदेशत्व गुण ही है, इसी गुण के कारण जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी, आकाश को अनन्त प्रदेशी और पुद्गलको संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी कहा जाता है।
आकृति या संस्थान का अर्थ यहां दृष्टिगोचर स्थूल आकार मात्र नहीं है, क्योंकि दृष्टिगोचर होने वाला आकार तो केवल मूर्तिक द्रव्योंमें ही पाया जाता है, परन्तु यहाँ प्रदेशोंके जिस आकारको ग्रहण किया गया है, वह मूर्तिक और अमूर्तिक, सभी द्रव्योंमें समान रूपसे पाया जाता है। अति सूक्ष्म होने के कारण परमाणु यद्यपि दिखाई नहीं देते, परन्तु उनसे निर्मित वस्तुओंकी आकृति दिखाई देती है, इससे यह स्पष्ट है कि इनके कारणभूत परमाणु कुछ न कुछ आकृति अवश्य रखते हैं।
जीव यद्यपि अमूर्तिक है, परन्तु प्रदेशत्व गुण के कारण वह जिस शरीरमें जाता है, उसी आकतिको धारण कर लेता है। क्रियाके कारण वस्तुके आकार में भी परिवर्तन हो जाता है । जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य ही क्रियावान् हैं। अत: इन दोनोंमें ही आकार परिवर्तन होता है। शेष द्रव्योंमें आकार तो है, परन्तु उनमें निष्क्रियता है, इसी कारण उनके आकार परिवर्तन नहीं होते। ____ इस प्रकार वस्तु में अस्तित्व आदिषट् सामान्य गुण पाये जाते हैं। इन छहों सामान्य गुणोंके क्रमकी भी सार्थकता है । वस्तु वही है जो सत्तात्मक है, इसीलिये अस्तित्व गुण को सर्वप्रथम रखा है, अस्तित्वयुक्त वस्तुका प्रयोजनभूत कार्य अवश्य होता है, द्रव्यत्वगुणके बिना प्रयोजनभूत कार्य सम्भव ही नहीं है, इन तीनों गुणोंसे युक्त वस्तु प्रमेयका विषय अवश्य होती है । द्रव्यों की सत्ता को पृथक्पृथक् रखने वाला अगुरूलघुत्व गुण और आश्रयभूत प्रदेशत्व गुण, अन्तमें कहा गया है।
१. आलाप पद्धति , पृ०९१ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ८-१० ३. जैन सिद्धान्त शिक्षण, पृ०९७, द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, पृष्ठ १८,२२. ४. सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३०
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