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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं । जिस शक्तिके निमित्त से जीव ज्ञाता-दृष्टा और कर्ता-भोक्ता होता है, जीवकी वह शक्ति चेतनत्व है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुणोंसे रहित और इन्द्रियोंसे अग्राह्य होनेको अमूर्तत्व कहते हैं, जैसा कि नयचक्र में कहा गया है - - "रूवाइपिंडो मुत्तं विवरीय ताण विवरीयं”३ जीवद्रव्यके ये षद् असाधारण गुण जीवके स्वरूपके साथ प्रत्येक अवस्थामें विद्यमान होते हैं । कर्मोंसे लिप्त संसारी जीवोंमें ये गुण आवृत अवस्थामें होते हैं, परन्त मुक्तावस्थामें ये गुण पूर्ण रूपसे प्रगट हो जाते हैं। (ख) पुद्गल द्रव्यके असाधारण गुण
जैन दर्शनके अनुसार पुद्गल द्रव्य में षद विशेष गुण पाये जाते हैं। आलाप पद्धतिमें इन गुणोंका नाम निर्देश किया गया है -
“पुद्गलस्य स्पर्शरसगन्धवर्णामूर्तत्वमचेतनत्वमिति षट्"
पुद्गलका सबसे प्रथम गुण स्पर्श है । स्पर्श गुणके द्वारा हल्का, भारी, शीत, उष्ण, नरम, कठोर, रूक्ष और स्निग्ध इन आठ प्रकारका ज्ञान होता है।' रस गुण के कारण खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला और चरपरा इन पाँच स्वादोंका ज्ञान होता है । गन्ध गुणके द्वारा सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है।" वर्णगुण के द्वारा कृष्ण, नील, पीत, शुक्ल और रक्त इन पाँच प्रकारके रंगोंका ज्ञान होता है। इन्द्रियग्राह्यताका होना मूर्तत्व है। चेतनत्व गुणका अभाव ही अचेतनत्व है। इस प्रकार स्पर्शादिके उत्तर भेद बीस और मूर्तत्व तथा अचेतनत्व मिलकर पुद्गल द्रव्यके कुल बाईस असाधारण गुण हो जाते हैं। (ग) शेष चार द्रव्यों के असाधारण गुण
जीव और पुद्गलके अतिरिक्त शेष चार द्रव्योंमें चार विशेष गुण पाये जाते
१. “द्रव्यस्यस्वशक्ति विशेषोवीर्यम् ।” पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १९५५, पृ० ३२३ २. राजवार्तिक, पृ० २६ ३. वृहद्नयचक्र, गाथा, ६४ ४. आलाप पद्धति, पृ०३३ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९३ ६. सर्वार्थसिद्धि, गृ० २९४ ७. . वही , पृ० २९४ ८. सर्वार्थसिद्धि, पृ०२९४ ९. पंचास्तिकाय, गाथा, ९९ १०. सालाप पद्धति, पृ० ३४
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