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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अनित्यत्व देखा जा सकता है । व्यक्तिके व्यक्तित्वकी नित्यतामें बालक और वृद्ध, सभ्य और गंवार परस्पर विरोधी धर्म दृष्टिगोचर होते हैं। ये विरोधी धर्म अखण्ड द्रव्यकी दृष्टिसे हैं, क्रमवर्ती पर्यायकी दृष्टिसे तो जिस समय बालक है उस समय बूढा नहीं और जिस समय सभ्य है उस समय गंवार नहीं है।
विरोधी धर्मों के सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, वक्तव्यअवक्तव्य अनेक रूप हो सकते हैं। वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा सत् होते हुए भी पर द्रव्य, परक्षेत्र पर काल और भाव की अपेक्षा असत् है। इस प्रकार अस्ति-नास्ति और विधि-निषेध रूपधर्म वस्तु में साक्षात् देखे जा सकते हैं।'
- वस्तुमें अनेक विरोधी धर्म कैसे सम्भव हैं ? इसके उत्तर में उदाहरण दिया जा सकता है कि जैसे एक मनुष्य अपने पुत्रका पिता है, उसी समय वह पिता का पुत्र भी है, मामाका भानजा भी है और भानजे का मामा भी है, इसी प्रकार नित्य अनित्य आदि विरोधी धर्म एक ही समयमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सम्भव हैं । डॉ० हिरियन्नाके शब्दोंमें वस्तुको अनेक दृष्टिकोणोंसे देखा जा सकता है। प्रत्येक दृष्टिकोणसे एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है। वस्तुका स्वरूप किसी एक दृष्टिकोणके द्वारा व्यक्त नहीं होता क्योंकि उसमें वैविध्य मूर्तिमान होता है। वस्तुके इस वैविध्य को ही अनेकान्त कहा गया है। १२. स्वचतुष्ट्य
चतुष्टयका अर्थ है चौकड़ी। जैन दर्शनकारोंने वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को विभिन्न दृष्टिकोणोंसे प्रतिपादन करने के लिये अनेक प्रकारकी चौकड़ियों का वर्णन किया है। जैसे द्रव्यके स्वभाव का प्रतिपादन करने वाले स्वचतुष्ट्य, द्रव्यके पर भावका प्रतिपादन करने वाले पर चतुष्ट्य, विरोधी धर्मों का प्रतिपादन करने वाले युग्मचतुष्ट्य, जीवकी अनन्त ज्ञानादि शक्तियोंका प्रतिपादन करने वाले अनन्त चतुष्ट्य आदि।
प्रस्तुत प्रकरणमें वस्तु स्वभावकी व्याख्यामें स्वचतुष्ट्य ही इष्ट है। स्वचतुष्ट्यका अर्थ है कि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावके द्वारा जो वस्तु १. स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च।
तदतच्चेति चतुष्ट्ययुम्मैरिव गुम्फित वस्तु॥पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक २६२ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६४ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० २७७
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