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वस्तु स्वभाव दोनों अंशोंपर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है। दोनों दृष्टियोंसे समन्वित स्वरूप ही सत् है। दोनों दृष्टियोंको जैन दर्शन में “द्रव्यार्थिक नय" और "पर्यायार्थिक नय" कहा जाता है। केवल ध्रुवताको लक्ष्य करने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक और उत्पादव्यय को लक्ष्य करने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक है।
इस प्रकार जैन मान्य सभी द्रव्य अपनी-अपनी जातिमें स्थिर रहते हुए भी निमित्तके अनुसार उसी प्रकार उत्पाद और व्ययको प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार स्वर्ण, स्वर्णत्व रूपसे स्थिर रहते हुए भी कटक, कुण्डल.रूपसे परिवर्तनको प्राप्त करता है और सागरका जल-जल रूपसे स्थिर रहते हुए भी तरंगोंके रूपमें परिवर्तित होता है।
जैन दर्शनका यह परिणामि-नित्यत्ववाद सांख्य दर्शनकी भाँति केवल जड़ प्रकृति तक ही सीमित नहीं है, परन्तु चेतन तत्त्व पर भी घटित होता है । जैन दर्शन सभी जीव अजीव तत्त्वोंको व्यापक रूपसे परिणामि-नित्य मानता है। इस प्रकार जैन मान्य सत्ताके सिद्धान्तके अनसार, यह संसार अनन्त और अविनाशी है, इसको रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है, अपितु वस्तुका उत्पाद-व्यय युक्त स्वभाव है, जो उत्पाद-व्यय युक्त होते हुए भी मूल रूप में ध्रुव है।'
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन दर्शन में सत्ता के विषय को अद्वैत या द्वैत के किसी एक सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों अंशों के सम्मलित रूपमें ही वस्तुका स्वरूप निहित है । उभयात्मक वस्तु स्वरूपके अवबोध के लिए जैन दर्शनमें अनेकान्तवादका प्रतिपादन किया गया है। ४. वस्तुके गुण
वस्तुकी दृष्ट कार्यव्यवस्थामें दो प्रमुख कारण दृष्टिगोचर हाते हैं - अन्तरंग तथा बाह्य । अन्तरंग कारण उपादान कहलाता है और बाह्य कारण निमित्त कहलाता है। इनमें विवक्षित वस्तु उपादान कहलाती है। वस्तु के स्वभाव १. पूज्यपादस्वामी, सर्वार्थसिद्रि१९५५, अध्याय १, सूत्र ३३ पृ० १४० २. भार्गव दयानन्द, जैन एथिक्स १९६८, पृ०५ ३. आलाप पद्धति • श्लोक २ १. डॉ० ग्लासनेप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलासफी, १९४२, पृ०१ ५. अकलंकमट्ट, राजवार्तिक, पृ० ११८ ६. अकलंकभट्ट, न्याय विनिश्चय, श्लोक १३
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