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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन में जो गुण उपादान रूपसे सदैव समान रहते हैं, उन्हें सहभावीगुण कहा जाता है। सहभावी गुण भी सामान्य तथा विशेषके भेदसे दो प्रकार के हो जाते हैं। जीवअजीव, जड़-चेतन सभी सत्ताभूत वस्तुओं में सामान्य रूप से रहने वाले गुणों को सामान्य या साधारण गुण कहा जाता है और विभिन्न द्रव्यों में विशेष रूप से रहने वाले गुणों को विशेष गुण कहा जाता है।
यहाँ सर्वप्रथम सामान्य गुणों का ही विवेचन इष्ट है जो सभी द्रव्यों में सामान्य रूपसे पाये जाते हैं और जिनके कारण जैन मान्य वस्तु का स्वरूप अन्य दर्शनोंसे भिन्न हो गया है। ५. साधारण या सामान्य गुण
सामान्य गुण दस हैं - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व और मूर्तत्व । इनमें से प्रथम षद् गुण सभी द्रव्योंमें सामान्य रूप से पाये जाते हैं, चेतनत्व तथा अमर्तत्व जीवद्रव्यमें पाया जाता है, अचेतनत्व तथा मूर्तत्व पुद्गल द्रव्य में पाया जाता है और अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व जैन मान्य शेष चार द्रव्यों (धर्म-अधर्म, आकाश और काल) में पाया जाता है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में आठ-आठ सामान्य गुण हो जाते हैं। यहाँ सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले षद सामान्य गुणों का विवेचन इष्ट
(१) अस्तित्व गुण- जिस शक्ति या गुणके निमित्त से द्रव्यका किसी भी अवस्थामें नाश न हो उसे अस्तित्व गुण कहते हैं । इस गुणके फलस्वरूप वस्तु अनेकों चित्र-विचित्र रूपोंको प्राप्त होने पर भी सत्तात्मक गुणको सदैव धारण किये रहती है । असत् पदार्थ शशविषाणवत् व्यवहार का विषय नहीं हो सकता। (२) बस्तुत्व गुण-वस्तु का जो गुण अर्थक्रिया करने में समर्थ हो उसे वस्तुत्व कहते हैं। जैसे घड़े की अर्थक्रियाजल धारण करना है, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यकी पृथक्-पृथक् अर्थक्रिया है। अर्थक्रिया लक्षण प्रत्येक वस्त में समान होते हुए भी
१. देवसेनाचार्य, वृहदनयचक्र, गापा ११ २. नयचक्र, गाथा १२ ३. एक्केक्का अट्ठा सामण्णाति सव्वदव्वाण, बृहदनयचक्र गाथा, १५ १. अत्विसहाबोसत्ता "वदनयचक्रगाथा,६१ ५. वस्तुनस्ताववक्रिया कारित्व लक्षण, स्यावादमंजरी, पृ० ३० ।
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