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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन किया जा सकता है, जिसे जैन दर्शन में विविध प्रकारकी साधनाओंके रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके आधार पर दैव (पुराकृत कर्मों) के फल को भी परिवर्तित किया जा सकता है।
प्रस्तुत शोध-प्रबंध में मुख्यतासेपंचसमवायों में से तीन को आधार माना गया है । स्वभाववाद जैन दर्शनका प्राण है, क्योंकि जैन दर्शनके अनुसार वस्तुमें जो शक्ति स्वत: न हो उसे कोई भी उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता।' स्वभाववादको दृष्टिमें रखकर वस्तुकी स्वाभाविक व्यवस्था तथा जीव और अजीव तत्त्वोंका विवेचन किया गया है, क्योंकि स्वभावको जान कर ही उनके संयोग जनित विस्तारको जाना जा सकता है और इस संयोगकी निवृत्तिका उपाय किया जा सकता है । दैववादके आधारपर पुराकृत कर्मों की विचित्रता तथा पुरूषार्थके आधारपर वर्तमान कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है । इसलिए कर्मों की बन्ध, उदय आदि दस अवस्थाओंको दर्शाया गया है और पुरूषार्थके क्रमिक विकासको ध्यानमें रखते हुए पंचलब्धि, संवर, निर्जरा तथा गुणस्थान व्यवस्थाको प्रस्तुत किया गया है। काल तथा काललब्धि (नियति) को दैव और पुरूषार्थमें ही गर्भित किया जा सकता है |
__ इस प्रकार कर्म सिद्धान्त प्राणियों के प्रयत्न को निरर्थक सिद्ध नहीं करता और न ही निरुत्साहित करता अपितु यह सिद्धान्त भविष्यके प्रति आशावान् बनाता है और वर्तमानके प्रति सहिष्णु बनाता है। कर्म-दर्शनशास्त्र का प्रधान विषय
. कर्म सिद्धान्त दर्शनशास्त्रका प्रधान तथा महत्त्वपूर्ण विषय है। सभी दर्शनों में इस विषय पर विशेष चिन्तन किया गया है। जैसे सुख-दु:ख का अन्वेषण करते हुए न्याय वैशेषिक में कहा गया है - संसार में कोई सुखी है, कोई दुखी है, किसीको खेती आदि करने से विशेष लाभ होता है, इसके विपरीत किसी को हानि होती है, किसी को अचानक सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर सहसा बिजली गिर जाती है, ये सब बातें किसी दृष्ट कारण के निमित्तसे नहीं हैं, अत: इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए।
१. नहि स्वतोऽसती शक्ति : कर्तुमन्येन पार्यते। ... कुन्दकुन्दाचार्य, समयसार, आत्मख्याति, गाथा ११९ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १३१ ३. नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, सन् १९८० प्रस्तावना, पृष्ठ २
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