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पृष्ठभूमि
__ महात्मा बुद्धने भी कहा है - हे मानव सभी जीव अपने कर्मों से ही फल का भोग करते हैं। सभी जीव कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियोंमें उत्पन्न होते हैं। अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है । कर्मसे ही प्राणी ऊँचे और नीचे होते हैं।'
इसी प्रकार जन्म-मरणके कारणके विषयमें भी महात्मा बुद्धने कहा है - जिनमें क्लेश लगा है अर्थात् जिनका चित्त रागद्वेष से रहित नहीं है, वे जन्म ग्रहण करते हैं और जो क्लेशसे रहित हो गये हैं वे जन्म ग्रहण नहीं करते। _इस प्रकार सुख-दु:ख और जन्म-मरण के कारण पर सांख्य योगादि सभी दर्शनकारोंने गहरा अनुचिन्तन किया है। परन्तु इस विषयमें प्राय: सभी एक मत हैं कि जन्म-मरण का कारण व्यक्तिके अपने परिणाम होते हैं, परिणाम से कर्म
और कर्मसे गतियों में भ्रमण होता है। गतियों की प्राप्ति होनेपर शरीर, शरीरमें इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण और विषयों को ग्रहण करनेसे राग द्वेष उत्पन्न होता है। इस प्रकार अनादिकालसे जीवका यह संसार चक्र चला आ रहा
बौद्ध दर्शन द्वारामान्य “प्रतीत्यसमुत्पाद" भी इसी अर्थ की विवेचना करता है। इसे द्वादश निदान, संसार चक्र, भाव चक्र, जन्म मरण चक्र, धर्म चक्र आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। इस सिद्धान्त में दु:ख तथा जन्म-मरणके हेतुओंका उल्लेख करते हुए बारह कड़ियोंका उल्लेख प्राप्त होता है-अविद्या, संसार, विज्ञान, नामरूप, षड़ायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण । यह क्रम भूत, वर्तमान और भविष्यकी दृष्टिसे किया गया है। अविद्या और संस्कारका संबंध पूर्व जन्मसे है । अन्तिम दो जाति और जरामरणका संबंध भविष्यके जीवनसे है और मध्यके आठ कारणोंका संबंध वर्तमान जीवनसे है । अविद्या दु:खों का मूल कारण है इसीलिये कार्य कारण श्रृंखला अविद्या पर आकर रुक जाती है।'
१. उद्धृत, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृ०२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृ०२ ३. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय, वि.स. १९७२, गाथा १२८ ४. पंचास्तिकाय, गाथा - १२९ - १३०. ५. (क). संयुक्तनिकाय २१.३.९.
(ख). सिन्हा हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, सन् १९८०. पृ०९५
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