Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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xxxi जैनाचार्य सिद्धसेनसूरि ने द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिकाओं में १६ वी द्वात्रिंशिका में नियति का विवेचन किया है। इन्होंने नियति के स्वरूप की चर्चा करने के अनन्तर सर्व सत्त्वों के स्वभाव की नियतता प्रतिपादित की है। जीव, इन्द्रिय, मन आदि के स्वरूप का भी प्रतिपादन किया है तथा स्वर्ग-नरक की प्राप्ति नियति से स्वीकार की है। ज्ञान को भी उन्होंने नियति के बल से स्वीकार किया है। हरिभद्रसूरि के शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवाद का उपस्थापन किया गया है। नियतिवाद के अनुसार सभी पदार्थ नियत रूप से ही उत्पन्न होते हैं। नियति के बिना मूंग का पकना भी सम्भव नहीं है। कार्य का सम्यक् निश्चय नियति से होता है। नियति के बिना कार्य में सर्वात्मकता की आपत्ति प्राप्त होती है
अन्यथा नियतत्वेन सर्वभाव: प्रसज्यते। अन्योन्यात्मकतापत्तेः क्रियावैफल्यमेव च।।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, २.६४ सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेवसरि ने नियतिवाद के पक्ष को प्रस्तुत करते हुए काल एवं स्वभाव को भी नियति में ही सम्मिलित कर लिया है, जैसा कि कहा है-"न च नियतिमन्तरेण स्वभाव: कालो वा कश्चिद् हेतुः यत: कण्टकादयोऽपि नियत्यैव तीक्ष्णादितया नियताः समुपजायन्ते न कुण्ठादितया।" अर्थात् नियति से भिन्न कोई स्वभाव अथवा काल हेतु नहीं है, क्योंकि कण्टकादि भी नियति से ही तीक्ष्णादि होते हैं, कुण्ठादि नहीं होते। दिगम्बर ग्रन्थ स्वयम्भूस्तोत्र, अष्टशती, गोम्मटसार एवं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी नियति का स्वरूप विवेचित हुआ है। गोम्मटसार में कहा है
जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा। तेण तहा तस्स हवे इति वादो णियदिवादो हु।।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड अर्थात् जो जब, जिसके द्वारा, जिस प्रकार, जिसके नियम से होना होता है वह हो तो यह नियतिवाद है। नियतिवाद में घटना की पूर्ण व्यवस्थिति सुनिश्चित है। भट्ट अकलंक ने अष्टशती में भवितव्यता से सम्बद्ध श्लोक उद्धृत किया है जिसका आशय है कि जैसी भवितव्यता होती है व्यक्ति की वैसी बुद्धि हो जाती है, वैसा ही प्रयत्न होता है तथा सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं।
सन्मतितर्क ३.५३ पर अभयदेवकृत टीका। तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता।। - अष्टशती में उद्धृत
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