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श्री गुणानुरागकुलकम्
लिखा है। अतएव - इसके पालन से गुणानुराग का बीज आरोपित होता है, और मात्सर्य आदि दोषों को छोड़ने से वह बीज वृद्धि को प्राप्त होता है।
केवल द्रव्य नमस्कार ही से आत्महित और सद्गुण प्राप्त नही. होते, किन्तु भाव नमन से होते हैं। भाव नमन ( नमस्कार) जिनेन्द्रों की यथार्थ आज्ञा पालन करना ही है।
अतएव जिनाज्ञा पूर्वक भाव नमस्कार कर ग्रन्थकर्त्ता श्रीमान्ं पं. श्री जिनहर्षगणिजी महाराज दूसरों के सद्गुण ग्रहण करना, अथवा उन पर अनुराग - मानसिक प्रेम रखना; इस विषय का. उपदेश देते हैं और साथ-साथ गुणानुराग का महत्व और उसके प्रभाव से जो कुछ गुण प्राप्त होते हैं उनको भी दिखलाते हैं। संसार में जितनी पदवियाँ हैं, वे सब गुणानुराग रखने से ही प्राप्त होती हैं :
उत्तमगुणाणुराओ, निवसइ हियए तु जस्स पुरिसस्स । आ-तित्थयरपयाओ, न दुल्लहा तस्स रिद्धीओ ॥ २ ॥
उत्तमगुणानुरागो, निवसति हृदये तु यस्य पुरुषस्य । आ- तीर्थकरपदात्, न दुर्लभास्तस्य ऋद्धयः ॥ २ ॥
शब्दार्थ - (जस्स) जिस (पुरिसस्स) पुरुष के (हियये तु) हृदय में (उत्तमगुणाणुराओ) उत्तम गुणों का अनुराग = प्रेम (निवसइ) निवास करता है (तस्स) उस पुरुष को (आ- तित्थयरपयाओ) तीर्थंकर पद से लेकर सब रिद्धियाँ = संपत्तियाँ (दुल्लहा ) दुर्लभ = मुश्किल (न) नहीं है।
भावार्थ - जो महानुभाव दूसरों के सगुणों पर हार्दिक प्रेम रखते हैं, उनको चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, माण्डलिक आदि संसारिक महोत्तम पदवियाँ, और तीर्थंकर, गणधर आचार्य, उपाध्याय, गणी,