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श्री गुणानुरागकुलकम् अत्यन्तमानिना सार्दू, क्रूरचित्तेन च दृढम्। धर्मद्विष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥
___ भावार्थ - जो अत्यन्त अभिमानी, दुष्ट अध्यवसाय वाला, धर्म का द्वेषी और युक्त अयुक्त के विचार से शून्य (मूर्ख) पुरुष हैं, उनके साथ तपस्वी को वाद करना वह 'शुष्कवाद' कहलाता है। अर्थात् यह वाद अनर्थ का कारण है; क्योंकि - इस वाद में खाली कण्ठशोष के अतिरिक्त कुछ भी सत्याऽसत्य का निर्णय नहीं होता, प्रत्युत वैर विरोध बढ़ता है, इसीसे संयमघात, आत्मघात
और धर्म की लघुता आदि दोषों का उद्भव होकर संसार वृद्धि होती है। अर्थात् - वाद करते समय अभिमानी अगर हार गया, तो अभिमान के कारण आत्मघात करेगा, अथवा मन में वैरभाव रखकर जिससे हार गया है उसका घात करेगा या उसके धर्म की निन्दा करेगा। यदि गुणानुरागी (तपस्वी-साधु) अभिमानी आदि से पराजित हो गया, तो संसार में निन्दा का पात्र बनेगा और अपने धर्म की अवनति करावेगा। इससे ऐसा वाद परमार्थ से हानिकारक ही है।
लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्या-दुस्थितेन महात्मनः : छलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः ॥४॥
भावार्थ - सुवर्ण आदि का लोभी, कीर्ति को चाहने वाला, दुर्जुन अर्थात् - खींजने वाला - चिढ़ने वाला और उदारता रहित पुरुषों के साथ छल अथवा जाति नामक वाद करना 'विवाद' कहलाता है। - इस प्रकार छल, जाति (दुषणाभास) आदि के बिना किये हुए वाद में तत्त्ववादी को विजय प्राप्त होना मुश्किल है। जो कदाचित् विजय भी प्राप्त हुआ, तो पूर्वोक्त वादियों को धर्म का बोध नहीं होता किन्तु उलटा राग-द्वेष बढ़कर आत्मा क्लेशों के वशीभूत होता है। परस्पर एक-दूसरों के दोषों को देखते हुए निन्दा या मानभंग होने