________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
१०५ हो जाते हैं, उसी प्रकार मान महीधर के भी अष्टमद रूप आठ ऊँचे ऊँचे शिखर हैं वे मनुष्यों के निज गुणों का विकास नहीं होने देते,
और सद्गुण की प्राप्ति में अन्तरायभूत होते हैं। जिस प्रकार हाथी मदोन्मत होकर आलानस्तम्भ को और सघन साँकल को छिन्न-भिन्न करते देर नहीं करता, उसी प्रकार अभिमानी मनुष्य भी शमतारूप आलानस्तंभ को और निर्मल बुद्धि रूप साँकल को तोड़ते देर नहीं करता। मानी पुरुषों के हृदय में सूबुद्धि पैदा नहीं होती, क्योंकि अभिमान के प्रभाव से ज्ञानचक्षु आच्छादित रहते हैं, इससे उच्चदशा का सर्वथा विनाश हो जाता है। जो महानुभाव अहंकार के कारण सारी दुनिया में नहीं समाते वे भी बेंतभर (अल्पतर) कमरे में समाते देर नहीं करते। अतएव जो सत्पुरुष मान को छोड़कर विनय गुण का अवलम्बन करेंगे वे अनेक सद्गुणों और अनुपम लीला के भाजन बनेंगे। . . माया और उसका त्याग -
माया एक ऐसा निन्दनीय दुर्गुण है जो बनी बनाई बात पर पानी फेर देता है, और लोगों में अविश्वासी बनाकर लज्जास्पद बना
देता है। वस्त्र त्यागकर जन्म पर्यन्त नग्न रहो, केशलुञ्चन करते रहो, .. जटाधारी बन जाओ, भूमि पर या लोहे के कीलों पर शयन नित्य
करते रहो, अनेक प्रकार के व्रत प्रत्याख्यान करके शरीर का शोषण कर डालो, सकल शास्त्रों में पारगामी हो जाओ, ध्यान में स्थित रहकर वर्षों तक बैठे रहो, मौनमुद्रा धारण कर लो, परन्तु जब तक हृदयभवन से कपटरूप दावानल नष्ट नहीं हुआ तब तक पूर्वोक्त एक भी क्रिया फलदायक नहीं हो सकतीं। क्योंकि आचार्य हो या