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श्री गुणानुरागकुलकम् ४. संज्वलनीय - क्रोध, मान, माया और लोभ। 'संज्वलनीय' उसको कहते हैं जिसमें परीषह और उपसर्ग आ पड़ने पर जो साधुओं को भी औदयिकभाव में स्थापन करता है और जिससे 'यथाख्यात चारित्र' उदय नहीं होने पाता। संज्वलनीय क्रोध - जलरेखा समान, मान - तृणशलाका समान, माया बाँस की छाल समान, और लोभ हलदीरंग समान है। इसका उदय उत्कर्ष से. पन्द्रह . दिन तक रहता है, और इससे प्रायः देवगति मिलती है।
__परनिन्दा, परस्त्रीगमन, परधनहरण आदि कारणों से क्रोध का उदय, दूसरों को घासफूस समान तुच्छ समझने से मान का उदय, अपनी पूजा, सत्कार योग्यता की चाहना रखने से माया का उदय,
और इन्द्रिय को अपने वश में न करने से लोभ का उदय होता है। इसी सबब से दर्शनसंस्थापक महर्षियों ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और हर्ष, इन छे अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतने के लिए बड़े जोरशोर से उपदेश दिया है, क्योंकि ये ही शत्रु प्रत्येक सन्मार्ग से घातक है।
जो स्त्री अपनी विवाहिता नहीं है और न अपने स्वाधीन है, अथवा जिसका एक देश से या सर्वदेश से त्याग कर दिया है, उसके साथ विषय सेवन अथवा विषय सेवन की इच्छा करने को 'काम' कहते हैं। अपने और दूसरों के चित्त को परिताप उपजाने वाले हेतु को 'क्रोध' कहते हैं। खर्च करने योग्य सुस्थान में धन खर्च नहीं करना, मर्यादा से अधिक इच्छा का फैलाना, धन स्त्री कुटुम्ब के ऊपर अत्यन्त आसक्त रहना और आठों प्रहर यह मेरा यह मेरा करते रहने को 'लोभ' कहते हैं। हठवाद, असदाग्रह और कुयुक्तिमय - अज्ञानदशा में पड़कर और मिथ्याभिमान में निमग्न हो सत्य बात को . भी स्वीकार नहीं करने को 'मोह' कहते हैं। जाति, कुल, बल, रूप,