________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
२२१ उत्तम कार्यों में काम आती है, और बलपुष्टि के लिए सहायक होती है। अतएव कितने ही उपदेशक कहते हैं कि -
"दूर्वाङ्करतृणाऽऽहाराः, धन्यास्तै वै वने मृगाः। विभवोन्मत्तमूर्खाणां, न पश्यन्ति मुखानि ये ॥१॥"
भावार्थ - वे नवीन दूर्वा के अङ्कर और घास खाने वाले वन में मृग धन्य हैं जो धन से उन्मत्तमूरों के मुख नहीं देखते। अर्थात् - जो धर्म कार्य में धन नहीं खर्च करते और अभिमान में उन्मत्त रहते हैं उनसे अरण्यस्थित घास खाने वाले मृग ही ठीक हैं जो कि वैसे पापीजनों का मुँह नहीं देखते। ... अतएव निर्गुणी मनुष्यों को मृग के समान नहीं समझना
चाहिए। तब धनपालं ने विचार करके कहा कि - जब ऐसा है तो निर्गुणी मनुष्यों को - मनुष्यरूपाः पशवश्चरन्ति' मनुष्य रूप से पशु सदृश कहना चाहिए। तदनन्तर प्रतिवादी पंडित ने पशुओं में से गौ का पक्ष लेकर कहा कि- यह बात भी बिल्कुल अनुचित है, सभ्यसभा में ऐसा कहना नीति विरुद्ध है। क्योंकि -
"तृणमत्ति राति दुग्धं, छगणं च गृहस्य मण्डनं भवति। • रोगापहारि मूत्रं, पुच्छं सुरकोटिसंस्थानम् ॥३॥" । - भावार्थ - गौ तृण (घास) खाती है, और अमृत के समान मधुर दूध और छगन (छाणा) देती है, तथा गौ से घर की शोभा होती है, गौ का मूत्र रोगियों के रोग का नाश करता है, और गौ की पुच्छ, कोटियों देवाताओं का स्थान समझा जाता है। .. गौ का दर्शन भी मंगलकारक है, संसार में प्रायः जितने शुभ कार्य हैं उनमें गौ का दूध, दही और घी सर्वोत्तम है। अतएव निर्गुणी पुरुष गौ के समान क्यों कहा जाय? तदनन्तर वृषभ का भी पक्ष लेकर कहा -