Book Title: Gunanurag Kulak
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay

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Page 297
________________ २३२ श्री गुणानुरागकुलकम् २. यदि सज्जनों के मार्ग पर जितना चलना चाहिए उतना नहीं चलते बने तो थोड़ा ही थोड़ा चलकर आगे बढ़ने का कोशीश करो, रास्ते पर जब पाँव रखोगे तब सुख ही मिलेगा। ३. मनुष्य को प्रतिदिन अपने चरित्र की आलोचना (विचार) करते रहना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि मेरा आचरण (व्यवहार) पशु के तुल्य है कि या सत्पुरुष के सदृश। .. .. ... ४. जैसे घिसने, काटने, तपाने और पीटने; इन चार बातों से सोने की परीक्षा होती है वैसे ही विद्या, स्वभाव, गुण और क्रिया; इन चार बातों से पुरुषों की जाँच होती है। . ५. सच्चरित्र पुरुष का संक्षिप्त लक्षण इतना ही है कि - उसमें सत्यप्रियता, शिष्टाचार, विनय, परोपकारिता और चित्त की विशुद्धता, ये गुण पाये जाएँ, शेष जितने गुण हैं वे इन्हीं के अन्तर्गत (अन्दर रहे हुए) हैं। ६. लोग अच्छे व्यवहार से मनुष्य और बुरे व्यवहार से पशुओं के तुल्य गिने जाते हैं। तुम यदि उदार, परोपकारी, विनयी, शिष्ट, आचारवान् और कर्त्तव्य परायण होंगे तो संसार के सभी लोग तुम्हें मनुष्य कहेंगे और तुम भी तब समझोगे कि मनुष्यता किसको कहते ७. सुशीलता, उच्चाभिलाष, अपने विभव के अनुसार भोजन, वस्त्र और आभूषण का व्यवहार, दुर्जनों की संगति, अपनी प्रशंसा और पराये.की निन्दा से विरत रहना, सज्जनों के वचन का आदर करना, सदा सत्य बोलना, किसी जीव को दुःख न पहुँचाना, सब प्राणियों पर दया करना; ये सब सुजनता के लक्षण हैं। ..

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