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श्री गुणानुरागकुलकम् ग्रन्थकार ने करुणाभावपूर्वक समझाने की जो शिक्षा दी है, वह सर्वग्राह्य है। वास्तव में उपदेशकों को ऊपदेश देने में, माता पिताओं को अपने बालक और बालिकाओं को समझाने में, गुरुजनों को अपने शिष्यवर्ग को सुधारने में, अध्यापकों को विद्यार्थीवर्ग को विद्या ग्रहण कराने में, और पति को अपनी स्त्री को सच्चरित्र बनाने में उक्तमहोत्तम शिक्षा का ही अनुकरण करना चाहिए। जो लोग शिक्षा देते समय कटुक और अवाच्य शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी शिक्षाओं का प्रभाव शिक्षकवर्ग पर किसी प्रकार नहीं पड़ सकता और न उनका सुधारा ही हो सकता है। __अधमजनों को उपदेश देने और समझाने से यदि उनको अप्रीति उत्पन्न होती हो तो माध्यस्थ भावना रखकर न तो उनकी प्रशंसा और न उनके दोष ही प्रकट करना चाहिए। अर्थात् अधमजनों की नीच प्रवृत्ति देखकर उनकी प्रवृत्तियों से न तो आनन्दित होना
और न उन पर द्वेष ही रखना चाहिए। कर्मों की गति अति गहन है, पूर्ण पुण्य के बिना सत्यमार्ग पर श्रद्धा नहीं आ सकती। वसन्त ऋतु में सभी वनराजी प्रफुल्लित होती हैं, परन्तु करीर वृक्ष में पत्र नहीं लगते, दिन में सब कोई देखते हैं लेकिन घुग्घू नहीं देखता औरमेघ की धारा सर्वत्र पड़ती है किन्तु चातक पक्षी के मुख में नहीं पड़ती, इसमें दोष किसका है? अत एव अधमजनों को उपदेश न लगे तो उनके कर्मों का दोष समझना चाहिए। ऐसा सम्यक्तया जानकर गुणीजनों को माध्यस्थ भावना पर आरूढ़ रहकर अधमजनों के दोष प्रकाशित करना उचित नहीं है।