Book Title: Gunanurag Kulak
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay

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Page 280
________________ -२१५ श्री गुणानुरागकुलकम् संप्रदायान्तर के गुणीजनों का गुणानुवाद करने का उत्साह न रखा जाएगा, तब तक उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना होगा, जो पूर्ण शांति और स्वतंत्रता समर्पण करता है। ___ "हम लोगों के परस्पर जितने व्यवहार हैं, आइने में मुंह देखने के बराबर हैं। जैसे - अपने को सामने रखकर हँसोगे तो प्रतिबिम्ब हँसेगा, और रोओगे तो प्रतिबिम्ब रोवेगा। वैसे ही तुम किसी का उपकार करोगे तो तुम्हारा भी कोई उपकार करेगा, और तुम किसी की हानि करोगे तो बदले में तुम्हें भी हानि भुगतनी पड़ेगी। अर्थात् प्रेम करने पर प्रेम, शत्रुता करने पर शत्रुता प्राप्त होगी। किसी को हृदय दोगे तो हृदय पाओगे और कपट के बदले कपट मिलेगा। तुम हँसकर बोलोगे तो तुम्हारे साथ संसार के लोग हँसकर बोलेंगे और तुम मुंह छिपाओगे तो संसार के लोग तुमसे मुँह छिपावेंगें। दूसरे को सुखी करोगे तो आप भी सुखी होओगे, और दूसरे को दुःख .दोगे तो स्वयं दुःख पाओगे। दूसरे का तुम सम्मान करोगे तो तुम्हारा सम्मान भी लोग करेंगे और दूसरे का अपमान करोगे, तो तुम्हें अपमानित होना पड़ेगा। सारांश यह है कि जैसा करोगे वैसा ही फल पाओगे।" (चरित्रगठन पृष्ठ ४४) .. आजकल के विद्वानों में प्रायः परस्पर सहानुभूति नहीं रक्खी जाती, यदि कोई विद्वान् साधु समाज का सुधार करने में प्रवृत्त है और शिक्षा के क्षेत्र में यथावकाश भाग ले रहा है तो कई एक साधु मात्सर्य से उसके कार्य में अनेक बाधा पहुँचाने के लिए तैयार हो जाते हैं। कई एक तो ऐसे हैं कि अन्य गच्छ या संघाटक, अथवा अपने विचार से भिन्न विचारवाले जो गुणी साधु या आचार्य हैं उनकी व्यर्थ निन्दा कर अपने अमूल्य चारित्ररत्न को कलङ्कित करते

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