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श्री गुणानुरागकुलकम्
२१७ मालूमपड़ती है। परन्तु एक जैन कौम ही कमनसीब है जो गत बीस वर्षों में दोढ़ लाख से कुछ अधिक घट गई। इस कमी का कारण संकुचितवृत्ति के सिवाय दूसरा कोई नहीं है। अगर अब भी इस कमी पर ध्यान न दिया जाएगा तो भविष्य में इससे भी अधिक कमी होने में कोई आश्चर्य नहीं है। आज कई एक वणिक जातियाँ ऐसी मौजूद हैं जो पूर्व समय में जैन धर्म पालन करती थीं, लेकिन इस समय वे वैष्णव धर्म पालन कर रही हैं।
· इतिहास, धर्मग्रन्थ और जीवनचरित्रों पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि बड़े-बड़े महात्मा और महापुरुषों ने जो-जो सामाजिक, धार्मिक और व्यावहारिक महत्कार्य किये हैं, वे परस्पर सहानुभूति रखकर ही किए हैं, ईर्ष्या द्वेष बढ़ाकर तो किसी ने नहीं किया। अतएव दोषदृष्टि को छोड़कर सब को गुणप्रेमी बनना चाहिए।
यदि भिन्न-भिन्न गच्छों की सत्यता, या असत्यता पर कभी विचार अथवा लेख लिखने की आवश्यकता हो तो उसमें शान्ति . या मधुरता के विरुद्ध कार्य करना अनुचित है। जिसके वचन में
शान्ति और मधुरता की प्रधानता है, उसका वचन दुनिया में सर्वसाधारण मान्य होता है। इसी पर विद्वान 'जेम्सएलन' ने लिखा है कि
- "शान्त मनुष्य आत्मसंयम का अभ्यास करके अन्य पुरुषों में : अपने को मिला सकता है, और अन्य पुरुष भी उसकी आत्मिक शक्ति के आगे सिर झुकाते हैं, उसको श्रद्धा से देखते हैं और उन को अपने आप ही भासमान होने लगता है कि वे उससे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और उस पर विश्वास कर सकते हैं। मनुष्य जितना ही अधिक शान्त होगा उतना ही अधिक वह सफल मनोरथ होगा और