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श्री गुणानुरागकुलकम्
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यदि यथार्थ संयम पालन करने की सामर्थ्य का नाश होते देख पडे और मानसिक विकारों का स्रोत किसी प्रकार न घट सकता हो तो गृहस्थ बनकर गृहस्थ धर्म की सुरक्षा करना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ धर्म से भी आत्मीय सुधारा हो सकता है। कहा भी है कि - "गारिपिअश्चवसे नरे, अणुपुव्वि पाणेहिं संजए ।
समता सव्वत्य सुव्वते, देवाणं गच्छेस लोगयं । "
भावार्थ - घर में निवास करने वाला गृहस्थ भी अनुक्रम से देशविरति का पालन और सर्वत्र समताभाव में प्रयत्न करता हुआ देवलोकों में जाता है। अर्थात् गृहस्थ घर में रहकर भी जिनेन्द्रोक्त श्रावक धर्म की भले प्रकार आराधना कर देवलोक की गति प्राप्त करता है और क्रमशः मोक्षगामी बनता है।
इसी प्रकार मधुर शब्दों में करुणाभाव से उन हीनाचारियों को, जो कि संयम धर्म से पतित अनाचारी हैं, उपदेश देकर सुधारना चाहिए, किन्तु उनके दोष प्रकट करना न चाहिए, क्योंकि दोषियों के दोष प्रकट करने से उनके हृदयपट पर उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता। हीनाचारियों के प्रति करुणाभाव रखने से उनके अज्ञान नष्ट करने में प्रवृत्त होने की प्रेरणा होती है, अन्त में परिणाम यह आता है कि न्यूनाधिक रूप से उन हीनाचारियों के अनाचार मिटने लगते . हैं, उनकी आत्मिक उत्क्रान्ति का मार्ग भी साफ हो जाता है, और इस भावना और सहायता को करनेवाला मनुष्य भी उन्नत होता है। अतएव मधुरता और करुणाभाव पूर्वक ही प्रत्येक व्यक्ति को समझाने और सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। विकराल अथवा हिंसक पशु भी प्रेमदृष्टि और करुणाभाव से सुधर सकते हैं, तो अधम पुरुष क्यों नहीं सुधर सकते ?