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श्री गुणानुरागकुलकम्
२०७ निष्फल है। इसी से ग्रन्थकार ने 'जइ मन्नइ तो पयासए मग्गं' यह वाक्य लिखा है, इसका असली आशय यही है कि सुनने वालों की प्रथम रुचि देखना चाहिए, क्योंकि सुनने की रुचि हुए बिना उपदेश का असर आत्मा में भले प्रकार नहीं जच सकता। अतएव रुचि से मानने वाले (अधमाधम) पुरुषों को हृदय में करुणाभाव रख मधुर वचनों से इस प्रकार समझाना चाहिए -
महानुभावो! इस संसार में अनेक भवों में परिभ्रमण करते हुए कोई अपूर्व पुण्ययोग से सर्व सावद्यविरतिरूप अनन्त सुखदायक चारित्र की प्राप्ती हुई है, उसको प्रमादाचरण से सदोष करना अनुचित है। जो साधु आलस छोड़कर मन, वचन और काया से साधु धर्म का पालन करते हैं उन्हें सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि सद्गुण प्राप्त होते हैं। जो सुख साधु धर्म में है, वह राजा महाराजाओं को भी नहीं मिल सकता। क्योंकि साधुपन में दुष्टकर्मों की आमदानी नहीं है। स्त्री, पुत्र और • स्वामी के कठोर वचनों का दुःख नहीं है, राजा वगैरह को नमस्कार करने का काम नहीं है, भोजन, वस्त्र पात्र, धन और निवासस्थान
आदि की चिन्ता नहीं है, अभिनव ज्ञान की प्राप्ति, लोकपूजा और 'शान्तभाव से अपूर्व सुख का आनन्द प्राप्त होता है और भवान्तर में
भी चारित्र परिपालन से स्वर्गाऽपवर्ग का सुख मिलता है। ... जो साधु संयमधर्म में बाधा पहुँचाने वाले बिना कारण दिनभर शयन करना, शरीर हाथ मुख पैर आदि को धोकर साफ रखना, कामवृद्धि करने वाले पौष्टिक पदार्थों का भोजन करना, सांसारिक विषयवर्द्धक श्रङ्गार कथाओं को वांचने में समय व्यतीत करना, गृहस्थों का और स्त्रियों का नित्य परिचय रखना, आधाकर्मादि वस्तुओं का सेवन और हास्य कुतूहल करना, अप्रतिलेखित पुस्तक, वस्त्र, पात्र और शय्या रखना, इत्यादि दोषों