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श्री गुणानुरागकुलकम्
२०३ भी - श्रावक के गुणों से शून्य, मायाचारी, अनाचारशील, देवद्रव्यभक्षक, कलहप्रिय और धर्मश्रद्धा विहीन देखे जाते हैं।
जो विषयादि भोगों में लुब्ध चित्तवाले हैं और जो बाह्य वृत्ति से राग रहित मालूम होते हैं, परन्तु अन्तःकरण में बद्धराग है, ऐसे लोगों को कपटी तथा केवल वेषाडम्बरी धूर्त समझना चाहिये। इस प्रकार के धूर्त केवल लोगों के चित्त को रंजन करने में ही प्रयत्नशील रहते हैं। हिन्दुस्तान में वर्तमान समय में बावन अठावन लाख नामधारी साधु हैं, उनमें कितने एक यशोवाद धन - माल आदि के आधीन हो साध्वाचार को जलांजलि देने वाले हैं और कई एक उन्मत्तता से स्वेच्छाचारी बनकर शास्त्र मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं।
पूर्वोक्त विडम्बकों की प्रशंसा करना यह प्रायः अनाचारों की प्रशंसा करने के समान है, इसलिये इनकी प्रशंसा नहीं करना चाहिये, परन्तु सभा के बीच में इनकी निन्दा भी करना अनुचित है। शीलहीन अनाचारी पुरुषों के साथ में परिचय न रखकर उनकी प्रशंसा अथवा निन्दा करने का प्रसंग ही नहीं आने देना चाहिये। यह सबसे उत्तम मार्ग है, क्योंकि निन्दा करने से शिथिलाचारियों की शिथिलता मिट नहीं सकती, प्रत्युत वैर-विरोध अधिक बढ़ता है और प्रशंसा करने से शिथिलाचार की मात्रा अधिकता से बढ़ जाती है, जिससे धार्मिक और व्यावहारिक व्यवस्था लुप्त प्राय (नष्ट-भ्रष्ट) होने लगती है।
राजा की शिथिलता से प्रबल राज्य का, नियोजकों की शिथिलता से बड़े भारी समाज का आचार्यों की शिथिलता से दिव्य गच्छ का, साधुओं की शिथिलता से संयम योग का, पति की शिथिलता से स्त्रियों के व्यवहार का, पिताओं की शिथिलता से पुत्रों के सदाचारों का और अध्यापकों की शिथिलता से विद्यार्थियों