________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
१२१ साधु हो, चाहे गृहस्थ हो, सबकी प्रबल इच्छा वडप्पनरूपी जंजीर से जकड़ी हुई रहती है। बहुत से मनुष्य तो उसी इच्छा का सदुपयोग कर शुभ फल उपार्जन करते हैं और बहुत से उसका दुरुपयोग कर अशुभ फल प्राप्त करते हैं। कोई कोई तो सब से ऊँची सीढ़ी पर चढ़कर भी उस महोत्तम इच्छारूप बल का, मद, मात्सर्य और गच्छ ममत्व आदि दोषों में निमग्न हो दुरुपयोग कर शुभ फल के स्थान में अशुभ फल संग्रह करते हैं। क्योंकि - अज्ञानदशा नियम से कार्योत्साह और शुभ इच्छारूप बल को समूल उच्छेदन कर डालती है, और वैर विरोध बढ़ाकर महाउपद्रव खड़ा कर देती है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग आदि अज्ञान दशा से ही प्राणी-मात्र इस दुःखमय संसारचक्र में पड़कर अनेक वार गोता खा चुके हैं और चौरासी लाक योनि में विवश होकर जन्म ले दुःख भोग चुके हैं। अज्ञानदशा से दुराचार की वृद्धि, असत्यमार्गों का पोषन, मात्सर्यादि दुर्गुणों की उत्पत्ति, धार्मिक रहस्य समझने का अन्तराय और कुबुद्धि • पैदा होती है। मिथ्याभिमान से अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा
करना, धार्मिक और जातिविरोध बढ़ाना, भगवान के वचनों के विरुद्ध भाषण करना, गुणीजनों के साथ मात्सर्य रखना, साधुजनों
का अपमान करना और असत्पक्षों का आचरण करना, यह . अज्ञानदशा की ही लीला है। अज्ञान और ज्ञान -
अज्ञानी मनुष्य को हितकारक और अहितकारक मार्ग का ज्ञान नहीं होता और उसे जितनी उत्तम शिक्षाएं दी जावें वे सब अहितकारक मालूम होती हैं। विद्वानों का कथन है कि अंधकार